ऋग्वेद-अध्याय(03)

अध्याय – 3   ऋषि- विश्वामित्र: –  यह छंन्द अग्नि को सर्मर्पित है। सदैवगतिमान अग्नि के लिए जिस उषाकाल में हवि प्रदान करते हुए अनुष्ठान किया जाता है वह उषाकाल सुसज्जित है। वह उषाकाल धन ऐश्वर्य से परिपूर्ण होकर प्रकाशयुक्त होता है।           गुफा मे वास करने वाले रिपु और उनकी सेनाओं को पराजित करने वाली अग्नि Continue reading

ऋग्वेद-अध्याय(02)

अध्याय – 2   कक्षीवान्‌ देवता विश्वेदेवा: – मैं उशिक पुत्र कक्षीवान क्षितिज के वीरों से युक्त उनकी वंदना करता हूँ। वे क्षितिज और धरा के वीरों के तुल्य शस्त्र धारण कर रिपुओं को निरस्त करते हैं। इसी प्रकार ये कक्षीवान ऋषि भी सभी देवताओं की वंदना करते हैं, जैसे अग्नि, वरून, इंद्र, उषा इत्यादी Continue reading

ऋग्वेद-अध्याय(01)

सूक्त पहला: मंत्र 1 देवता: अग्निः ऋषि: मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः   अ॒ग्निमी॑ळे पु॒रोहि॑तं य॒ज्ञस्य॑ दे॒वमृ॒त्विज॑म्। होता॑रं रत्न॒धात॑मम्॥ agnim īḻe purohitaṁ yajñasya devam ṛtvijam | hotāraṁ ratnadhātamam || यहाँ प्रथम मन्त्र में अग्नि शब्द करके ईश्वर ने अपना और भौतिक अर्थ का उपदेश किया है। पदार्थान्वयभाषा(Material language):- हम लोग (यज्ञस्य) विद्वानों के सत्कार सङ्गम महिमा और कर्म Continue reading

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