हिरण्यकश्यप के बारे में संपूर्ण जानकारी: पूर्व जन्म से लेकर अगले जन्म तक

हिरण्यकश्यप का 

भागवत पुराण की एक कहानी के अनुसार ,एक बार सनकादि मुनि भगवान विष्णु के दर्शन करने बैकुंठ आए। उस समय बैकुंठ के द्वार पर जय-विजय नाम के दो द्वारपाल पहरा दे रहे थे। जब सनकादि मुनि द्वार से होकर जाने लगे तो जय-विजय ने हंसी उड़ाते हुए उन्हें बेंत अड़ाकर रोक लिया। क्रोधित होकर सनकादि मुनि ने उन्हें तीन जन्मों तक राक्षस योनी में जन्म लेने का श्राप दे दिया। क्षमा मांगने पर सनकादि मुनि ने कहा कि तीनों ही जन्म में तुम्हारा अंत स्वयं भगवान श्रीहरि करेंगे। इस प्रकार तीन जन्मों के बाद तुम्हें मोक्ष की प्राप्ति होगी। पहले जन्म में जय-विजय ने हिरण्यकश्यप व हिरण्याक्ष के रूप में जन्म लिया। भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष का तथा नृ¨सह अवतार लेकर हिरण्यकश्यप का वध कर दिया। दूसरे जन्म में जय-विजय ने रावण व कुंभकर्ण के रूप में जन्म लिया। इनका वध करने के लिए भगवान विष्णु को राम अवतार लेना पड़ा। तीसरे जन्म में जय-विजय शिशुपाल और दंतवक्र के रूप में जन्मे। इस जन्म में भगवान श्रीकृष्ण ने इनका वध किया।हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष – एक साथ बुलाया Hiranya रों – करने के लिए पैदा हुए थे Diti (की बेटी दक्ष Prajapathi ) और ऋषि काश्यप । ऐसा कहा जाता है कि शाम के समय उनके मिलन के परिणामस्वरूप असुरों का जन्म हुआ था, जिसे ऐसे कार्य के लिए अशुभ समय कहा जाता था। [३]

इस प्रकार ऋषि कश्यप की अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सुरसा, तिमि, विनता, कद्रू, पतांगी और यामिनी आदि पत्नियाँ बनीं। मान्यता है कि 13 के अलावा उनकी और भी पत्नियाँ थीं।
अदिति के गर्भ से देवता और दिति के गर्भ से दैत्यों की उत्पत्ति हुई, बाकी अन्य पत्नियों से गंधर्व, अप्सरा, राक्षस, पशु-पक्षी, सांप, बिच्छु, जलचर जंतु आदि जीव-जंतु जगत की उत्पत्ति हुई।
दैन्यों को असुर और  राक्षस
भी कहा गया है। दैत्यों की प्रवृत्तियाँ आसुरी थीं। आगे चलकर उनका देवताओं या सुरों से युद्ध भी हुआ। देवता दैत्यों के सौतेले भाई थे और कश्यप ऋषि की दूसरी पत्नी अदिति के पुत्र थे।
भागवत पुराण के अनुसार एक बार दक्ष पुत्र दिति ने कामातुर होकर अपने पति मरीचिनंदन कश्यपजी से प्रार्थना की। उस समय कश्यपजी खीर की आहुतियों द्वारा अग्निजिह्व भगवान यज्ञपति की आराधना कर सूर्यास्त के समय अग्निशाला में ध्यानस्थ बैठे थे, लेकिन दिति कामदेव के वेग से अत्यंत बैचेन हो बेबस हो रही थी। यह वक्त संध्यावंदन का था, लेकिन लाख समझाने पर भी वह नहीं मानी।
कश्यपजी ने के कहा- तुम एक मुहूर्त ठहरो यह अत्यंत घोर समय चल रहा है जबकि राक्षसादि प्रेत योनि की आत्माएं सक्रिय हैं, ऐसे में यह वक्त ईश्वर भक्ति का वक्त है। इस वक्त महादेवजी अपने तीसरे नेत्र से सभी को देखते रहते हैं। यह वक्त उन्हीं का है। यह समय तो संध्यावंदन और भगवत् पूजन आदि के लिए ही है। इस समय जो पिशाचों जैसा आचरण करते हैं, वे नरकगामी होते हैं।
पति के इस प्रकार समझाने पर भी दिति नहीं मानी और निर्लज्ज होकर उसने कश्यपजी का वस्त्र पकड़ लिया। तब विवश होकर उन्होंने इस ‘शिव समय’ में देवों को नमस्कार किया और एकांत में दिति के साथ समागम किया।
समागम बाद कश्यपजी ने निर्मल जल से स्नान किया और फिर से ब्रह्म का ध्यान करने लगे लेकिन दिति को बाद में इसका पश्चाताप हुआ और लज्जा आई। तब वह ब्रह्मर्षि के समक्ष सिर नीचा करके कहने लगी- ‘भूतों के स्वामी भगवान रुद्र का मैंने अपराध किया है, किंतु वह भूतश्रेष्ठ मेरे इस गर्भ को नष्ट न करें। मैं उनसे क्षमा मांगती हूं।’
बाद में कश्यपजी जब ध्यान से उठे तो उन्होंने देखा की दिति भय से थर-थर कांपते हुए प्रार्थना कर रही है। कश्यपजी बोले, ‘तुमने देवताओं की अवहेलना करते हुए अमंगल समय में काम की कामना की इसलिए तुम्हारी कोख से दो बड़े ही अमंगल और अधम पुत्र जन्म लेंगे और वे धरती पर बार-बार अपने अत्याचारों से लोगों को रुलाएंगे। तब उनका वध करने के लिए स्वयं जगदीश्वर को अवतार लेना होगा। चार पौत्रों में से एक भगवान हरि का प्रसिद्ध भक्त होगा, तीन दैत्य होंगे।’
इस अंधकार को देख सभी देवता ब्रह्मा के पास पहुंचे और कहने लगे इसका निराकरण कीजिए। ब्रह्मा ने कहा कि पूर्वकाल में सनकादि मुनियों को बैकुंठ धाम में जाने से विष्णु के पार्षदों ने अज्ञानतावश रोक दिया था। वे लोग विष्णु के दर्शन करना चाहते थे। उन्होंने क्रुद्ध होकर उन दोनों पार्षदों को श्राप दे दिया कि वे अपना पद छोड़कर पापमय योनि में जन्म लेगें। ये दोनों पार्षद थे- जय और विजया। ये दोनों बैकुंठ से पतित होकर दिति के गर्भ में बड़े हो रहे हैं।
सृष्टि में भयानक उत्पात और अंधकार के बाद दिति के गर्भ से सर्वप्रथम दो जुड़वां पुत्र जन्मे हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष। जन्म लेते ही दोनों पर्वत के समान दृढ़ तथा विशाल हो गए। ये दोनों ही आदि दैत्य कहलाए।
दिति के पुत्र : कश्यप ऋषि ने दिति के गर्भ से हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र एवं सिंहिका नामक एक पुत्री को जन्म दिया। श्रीमद्भागवत् के अनुसार इन तीन संतानों के अलावा दिति के गर्भ से कश्यप के 49 अन्य पुत्रों का जन्म भी हुआ, जो कि मरुन्दण कहलाए। कश्यप के ये पुत्र नि:संतान रहे जबकि हिरण्यकश्यप के चार पुत्र थे- अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रह्लाद और संहल्लाद।

हिरण्यकश्यप के बड़े भाई हिरण्याक्ष की विष्णु के वराह अवतार के हाथों मृत्यु के बाद , हिरण्यकश्यप विष्णु से घृणा करने लगता है। वह रहस्यमय शक्तियों को प्राप्त करके उसे मारने का फैसला करता है, जिसे वह मानता है कि ब्रह्मा , देवों में प्रमुख , उसे पुरस्कार देगा यदि वह कई वर्षों की महान तपस्या और तपस्या से गुजरता है , जैसे कि ब्रह्मा ने अन्य राक्षसों को शक्तियां प्रदान कीं।

यह शुरू में योजना के अनुसार काम करने लगा, ब्रह्मा हिरण्यकश्यप की तपस्या से प्रसन्न हो गए। [४] ब्रह्मा हिरण्यकश्यप के सामने प्रकट होते हैं और उन्हें अपनी पसंद का वरदान देते हैं। लेकिन जब हिरण्यकशिपु अमरता के लिए कहता है, तो ब्रह्मा मना कर देते हैं। हिरण्यकश्यप फिर निम्नलिखित अनुरोध करता है:

 

हे मेरे प्रभु, हे श्रेष्ठतम दाता, यदि आप कृपया मुझे वह वरदान दें जो मैं चाहता हूं, तो कृपया मुझे आपके द्वारा बनाए गए किसी भी जीव से मृत्यु नहीं मिलने दें।

मुझे यह वरदान दो कि मैं न तो किसी निवास के भीतर या किसी निवास के बाहर, दिन के समय या रात में, न ही जमीन पर या आकाश में मरूं। मुझे दे दो कि मेरी मृत्यु तुम्हारे द्वारा बनाए गए लोगों के अलावा किसी और के द्वारा न हो, न ही किसी हथियार से, न ही किसी इंसान या जानवर द्वारा।

मुझे अनुदान दें कि मैं किसी भी जीव, जीवित या निर्जीव से मृत्यु को प्राप्त नहीं करता। मुझे आगे भी अनुदान दो, कि मुझे किसी भी देवता या राक्षस या निचले ग्रहों के किसी भी महान सांप द्वारा नहीं मारा जाए। चूँकि युद्ध के मैदान में आपको कोई नहीं मार सकता, इसलिए आपका कोई प्रतियोगी नहीं है। अत: मुझे यह वरदान दो कि मेरा भी कोई प्रतिद्वन्दी न हो। मुझे सभी जीवों और अधिष्ठाता देवताओं पर एकमात्र आधिपत्य दें, और मुझे उस पद से प्राप्त सभी महिमा दें। इसके अलावा, मुझे लंबी तपस्या और योग के अभ्यास से प्राप्त सभी रहस्यवादी शक्तियां प्रदान करें, क्योंकि ये किसी भी समय नष्ट नहीं हो सकती हैं।

अन्य पुराणों में वरदान के अनेक रूप बताए गए हैं। शिव पुराण में उल्लेख है कि हिरण्यकश्यप ने ब्रह्मा से पूछा कि वह सूखे या गीले हथियारों, वज्र, पहाड़ों, पेड़ों, मिसाइलों या किसी भी प्रकार के हथियार के लिए अजेय होगा। वायु पुराण में उल्लेख है कि हिरण्यकश्यप ने इतना शक्तिशाली होने के लिए कहा, केवल विष्णु ही उसे मार डालेंगे। अन्य भिन्नताओं में किसी भी जीवित प्राणी द्वारा नहीं मारा जाना शामिल है, दिन या रात में नहीं और ऊपर या नीचे नहीं।

धारा 14 में, महाभारत के अनुसासन पर्व, ऋषि उपमन्यु ने कृष्ण को संक्षेप में बताया कि हिरण्यकश्यप ने भी भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए एक और तपस्या की थी। शिव ने हिरण्यकश्यप को वरदान दिया कि उसके पास बेजोड़ युद्ध कौशल, धनुष और अन्य हथियारों के उपयोग के साथ-साथ इंद्र, यम, कुबेर, सूर्य, अग्नि, वायु, सोम और वरुण सहित सभी देवताओं की शक्तियां होंगी।

इन दो वरदानों के परिणामस्वरूप, हिरण्यकश्यप इतना शक्तिशाली हो गया कि वह बहुत हिमालय को उनकी जड़ों तक हिलाने में सक्षम हो गया। रावण ने एक बार हिरण्यकश्यप की बालियां उठाने की कोशिश की लेकिन वह ऐसा करने में असमर्थ था क्योंकि वे बहुत भारी थीं।

ब्रह्माण्ड पुराण में उल्लेख है कि हिरण्यकश्यप ने 107,280,000 वर्षों (24 महायुगों से अधिक ) तक शासन किया ।

 

नारद पुराण में लिक्खा है कि हिरण्यकश्यप को इतना घमंड था, हिरण्यकश्यप नामक अत्यंत क्रूर राक्षस ने ब्रह्मा जी की 36000 वर्षो तक तपस्या करके वरदान देने पर बाध्य कर दिया था उसकी कठोर तपस्या से खुश ब्रह्मा जी ने अमरत्व के बिलकुल नज़दीक वरदान भी दिया।

उसने न जल, न थल, न दिन, न रात में, न किसी अस्त्र से न शस्त्र से, न घर के बहार न अंदर, न ज़मीन पर न आकाश में, न ही ब्रह्मा के द्वारा बनाये गए किसी भी जीव के द्वारा न मरने का वरदान ले लिया, ऐसा करके वो आश्वस्त हो गया की वो अब अमर हो गया है. लेकिन वह भूल गया की कोई कितना भी होशियार हो, भगवन की होशियारी उससे ज्यादा है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते।

विशेष बात ये है की हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद भगवन विष्णु का परम भक्त था। वो सदैव भगवान विष्णु का गुणगान, उनकी चर्चा वा उनका प्रचार करता था। न केवल दूसरो को, बल्कि वो निर्भय होकर अपने माता पिता को भी भगवान की भक्ति के लिए प्रेरित करता था। हिरण्यकश्यप जो अपने धन ऐश्वर्या शक्ति से इतना अंधा हो चुका था कि अपने छोटे से पुत्र की बात उसे काफी कड़वी लगती थी और यही वजह थी की उसने अपने ही पुत्र को मारने का मन बना लिया था।

हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को आदेश दिया कि वह उसके अतिरिक्त किसी अन्य की स्तुति न करे। प्रह्लाद के न मानने पर हिरण्यकश्यप उसे जान से मारने पर उतारू हो गया। उसने प्रह्लाद को मारने के अनेक उपाय किए लेकिन व प्रभु-कृपा से बचता रहा। हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को अग्नि से बचने का वरदान था। उसको वरदान में एक ऐसी चादर मिली हुई थी जो आग में नहीं जलती थी। हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका की सहायता से प्रहलाद को आग में जलाकर मारने की योजना बनाई।

होलिका बालक प्रहलाद को गोद में उठा जलाकर मारने के उद्देश्य से वरदान वाली चादर ओढ़ धूं-धू करती आग में जा बैठी। प्रभु-कृपा से वह चादर वायु के वेग से उड़कर बालक प्रह्लाद पर जा पड़ी और चादर न होने पर होलिका जल कर वहीं भस्म हो गई। इस प्रकार प्रह्लाद को मारने के प्रयास में होलिका की मृत्यु हो गई। तभी से होली का त्योहार मनाया जाने लगा।

तत्पश्चात् हिरण्यकश्यप को मारने के लिए भगवान विष्णु नरंसिंह अवतार में खंभे से निकल कर गोधूली समय (सुबह और शाम के समय का संधिकाल) में दरवाजे की चौखट पर बैठकर अत्याचारी हिरण्यकश्यप को मार डाला।

शास्त्रों के अनुसार भगवान अपने परम भक्त प्रह्लाद की रक्षा करने के लिए खम्बे से भक्त वत्सल नरसिंघ अवतार जो की आधे नर और आधे सिंह के रूप में प्रकट हुए थे और हिरण्यकश्यप का वध किया। भगवान के ये अद्भुत रूप धारण करने के पीछे भी कई कारण हैं। रोष को प्रकट करने के लिए शेर जाना जाता है। वैसे ही हिरण्यकश्यप के प्रह्लाद की तरफ प्रतारणा को देख के भगवन अत्यधिक रोष में थे। इसे प्रकट करने के लिए उन्होंने सिंह का रूप धारण किया। वध के बाद जब सभी देवी देवता भयभीत थे, तब प्रह्लाद ने आगे बढ़ के उनको शांत किया और भगवन ने अपने सिंह मुख से प्रह्लाद को चाट के अपने स्नेह दिखाया।

जो हमारे भक्तिमय जीवन में आने वाली सभी बाधाओं को समाप्त करते हैं, इसलिए भक्त उन से अपने हृदय में विद्यमान हिरण्यकश्यप जैसे असुर को समाप्त करने की प्रार्थना करते हैं. हांलाकि भगवान का ये रूप भयानक प्रतीत होता है लेकिन भक्तों के लिए ये अत्यंत सुंदर और प्रेम प्रदर्शित करने वाला है।

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