अध्याय – 4
- ऋषि भरद्वाजो बृहस्पत्यः–
हे द्यावाधरा! महान कर्म वाले मनुष्यों को तुम जल प्रदान करती हो द्यावाघरा जल द्वारा अच्छादित है और जल का ही शरण करती है। वे विस्तीर्ण जल से ओत-प्रोत और जल वृष्टि का विधान करने वाली हो। अनुष्ठान करने वाले यजमान उनसे सुख माँगते हैं। जल का दोहन करने वाला अनुष्ठान, धन, कीर्ति,अन्न, शक्ति प्रदात्री द्यावाधरा हमें शहद से अभिषिक्त करे । हे पिता रुप स्वर्ग और माता रुप धरा, हमें अन्न प्रदान करो, तुम जगत को जानने वाली सुखदात्री हो । हमें शक्ति, धन और अपत्य दो।
सवितादेव श्रेष्ठकर्मी अपनी भुजाओं को ऊपर उठाकर जगत की सुरक्षा करते हैं। उन सविता देव के धन दान के लिए हम शक्ति पाऐं। हे सविता देव तुम सभी पशुओं और मनुष्यों की उत्पत्ति करने वाले हो हमारा मंगलमय हो। शांत ह्रदयवाले हस्त कीर्ति के योग्य सविता देव रात का अंत होने पर सचेस्ट होकर हविदाता के लिए अभिष्ट अन्न अभिप्रेरित करें।
हे सवितादेव! तुम अपरिमित धन वाले हो, अतः हम वंदना द्वारा धन पाऐंगे। हे इन्द्रदेव और सोम! तुम उषा को उदियमान करो और ज्योति को उठाओ। अतंरिक्ष के द्वारा स्वर्ग को स्तम्भित करो और धरा को पूर्ण करो। हे इन्द्रदेव और सोम! जल को प्रवाह युक्त कर समुद्र को भर दो। तुमने धेनुओं में परिपक्व दुग्ध को रखा है, और विविध रंगोवाली धेनुओं के बीच श्वेत-श्वेत रंग (पानी वाले बादल) वाले दुध को ही धारण कराया है। हे इन्द्र और सोम देव! तुम हमें उद्धार करने वाला अपत्य युक्त धन प्रदान करो। तुम रिपु- सेना को अभिभूत करने वाली शक्ति की वृद्धि करो। बृहस्पति सबसे पहले रचित हुए और जिन्होने पर्वत को तोडा था, जो अंगिरा और अनुष्ठान जगत में भलीभाँति विचरणशील हैं, वही बृहस्पति स्वर्ग और धरा में घोर ध्वनी करते हैं। इन्हीं बृहस्पति ने राक्षसों के गोधन को जीता, यही बृहस्पति ने स्वर्ग के रिपुओं (दुश्मनों) को मंत्र द्वारा मृत किया। हे सोम और रुद्रदेव! हमारे शरीर की सुरक्षा के लिए औषधि धारण करो। हमारे पापों को दूरस्थ करो हमारे निकट महान धनुष तीक्ष्ण और बाण है। तुम सुन्दर वंदना की कामना करते हुए हमें सुख प्रदान करो। हमको वरुण पाश से भी स्वतंत्र करो।
- ऋषि-पायुर्भरद्वाजः –
देवता वर्म धनु: –सारथी, रथ, प्रभृती युद्ध उपस्थित होने पर सम्राट जब लोह कवच को धारण करता है, तब वह बादल के तुल्य लगता है। हे राजन! तुम अहिंसक पराजित होकर भी जीतो। हम धनुष के प्रभाव से संग्राम को जीतकर धेनुओं को ग्रहण करेंगे। धनुष की डोरी युद्ध से पार लगाने के लिए प्रिय कवच कहती हुई कान के निकट पहुचती है। यह डोरी बाण से मिलकर ध्वनी करती है। धनुष कोटियाँ आक्रमण के वक्त माता पिता द्वारा पुत्र की सुरक्षा करने तुल्य सम्राट की सुरक्षा करें, और रिपुओं को विदीर्ण कर डालें। यह तूणिर बाणों के पिता तुल्य है। असंख्य बाण इनके पुत्र हैं। बाणों के निकलने के समय यह ध्वनी करता है। तब समस्त सेनाओं पर विजय प्राप्त करता है। हे ब्रह्मणों पितरों! तुम हमारे रक्षक बनो द्यावाधरा हमारा मंगल करें। पुषा पाप से बचाऐं। रिपु हमारे सम्राट न हों।
हे मंत्र के द्वार तीक्ष्ण बाण। तुम वध मर्क में चतुर हो, अतः छोडे जाकर रिपुओं पर गिरो और उन्हें जीवित मत करो। जिस युद्ध में बाण गिरते है, उस युद्ध में बृहस्पति और अदिति सुख प्रदान करें । हे राजन! मैं तुम्हारे मर्म को कवच से ढँकता हूँ। सोम तुमको अमृत से ढँके और वरुण श्रेष्ठ सुख प्रदान करें। तुम्हारी जीत से देवता हर्षित होते हैं। जो बान्धव हमसे रुष्ट होकर हमें मृत करना चाहता है, उसे सभी हिंसित करें। यह मंत्र ही हमारे लिए कवच रुपी है।
- ऋषिवशिष्ठ: –
हे अग्ने! धन के अधिश्वर होकर हम प्रतिदिन ही तुम्हारी प्राथना करते हुए हव्यादि देंगे। तुम देवों के निकट ये रमणिय हवियाँ पहुँचाओ क्योंकि समस्त देवता हमारे इस उत्तम अनुष्ठान में भाग ग्रहण करना चाहते हैं । हे अग्ने! हम संतान विहीन न हों, निकृष्ट परिधान न पहनें। हमारी मती का पतन ना हो हम क्षुधार्त न हों, राक्षस के हाथों में न पड़ें।
वैश्वानर: हे अग्ने! तुम स्वर्ग के रुप से प्रकट होकर पवन के तुल्य सर्वप्रथम सोम पीते हो। जल को रचित करते हुए अन्न की इच्छा करने वालों की आशा बाँधते हुए बिजली के रुप में गर्जनशील बनते हो। हे अग्ने! रुद्रगण और वसुगण से युक्त आप हमारा मंगल किजिए।
मैं उसकी प्रार्थना करता हूँ। जिन्होंने अपने आयुधों से आसुरी माया का पतन कर डाला और जिन्होंने उषा की उत्पत्ति की उस अग्नि ने प्रजा को अपनी शक्ति से रोका और सम्राट नहुष को कर देने वाला बना दिया। सुख के लिए समस्त पुरुष हव्य के संग पधारकर जिस अग्नि की इच्छा करते हैं, वे वैश्वानर अग्नि माता- पिता के तुल्य अम्बर-धरा के बीच ढृढ अंतरिक्ष मे प्रकट हुए हैं। सूर्य के उदित होने पर वैश्वानर अग्नि अंधकार को दूर करते हैं। समुद्र, अम्बर-धरा आदि समस्त जगहों का अंधकार समाप्त हो जाता है।
हे अग्ने! तुम वसुओं के स्वामी हो। वशिष्ठ वंशज मुनिगण तुम्हारी प्रार्थना करते हैं। आप हविदाता यजमान और वंदनकारी को अन्न से शीघ्र ही युक्त करें और हमारी सदैव रक्षा करें। हे अग्ने! हम धन के लिए मरुदगण, अश्विद्वय, जल, सरस्वती आदि समस्त देवों का अनुष्ठान करते हैं। वशिष्ठ तुम्हारी परिचर्या करते हैं। तुम कटुभाषी दैत्यों का शोषण करो। अनेक वंदनाओं से देवों को हर्षित करो और हमारी सुरक्षा करो।
हे अग्ने! वसुगण से मिलकर इन्द्रदेव को पुकारो। इन्द्र से मिलकर रुद्र को आहूत करो। आदित्यों से सुसंगत होकर अदिति का आवाहन करो। अंगिराओं से सुसंगत होकर वरणीय बृहस्पति का आवाहन करो! कामना वाले मनुष्य प्रार्थना योग्य अग्नि की वंदना करते है। अग्नि रात्रि में शोभा-संम्पन्न होते हैं। देवयान में हवि प्रदान करने वाले सन्देशवाहक होते हैं।
ऋत्विगण तीन-तीन सवनों (प्रहर) में आपके लिए हवि प्रदान करते हैं। आप हमारे इस अनुष्ठान में दूत होकर हव्य वहन करिये और रिपुओं से हमारी सुरक्षा कीजिए। महान अनुष्ठान के अधिश्वर अग्नि हवियों के मालिक हैं। वसुगण इनके कार्यों की प्रशंसा करते हैं।
हे अग्ने! मित्रावरुणे भी तुम्हीं हो। वशिष्ठों ने तुम्हारा पूजन किया। तुम्हारे धन हमारे लिए आसानी से प्राप्त हो। तुम हमारे पोषक बनो। सूर्य रुप से तुम ही रचित हो। तुम सर्वत्र गमनशील हो। जब तुम प्राणघारियों का संदर्शन करो उस समय प्रार्थनाएँ तुम्हें ग्रहण हों हमारी सदैव सुरक्षा करो।
हे इन्द्रदेव! आपके पास हमारी रमणीय प्रार्थनाएँ विचरण करती हैं। ज्ञानि वशिष्ठ उत्तम तृण वाली गृह में वास करने वाली धेनु के तुल्य श्लोक रुप बछडे की रचना करते हैं। समस्त प्राणधारी आपको धेनु का स्वामी मानते हैं। हे इन्द्रदेव! हमारी प्रार्थना की निकटता प्राप्त करो जिनके मारे जाने की इच्छा राक्षसगण करते हैं, उन वशिष्ठ, पाराशर आदि मुनियों ने आपकी प्रार्थना की थी। मैने आपकी प्रार्थना करके सुदास के सौ और दो रथ ग्रहण किये हैं। होता (याचक, सूर्य) के तुल्य मैं भी अनुष्ठान स्थल में पधारता हूँ। अम्बर धरा में विशाल कीर्ति वाला सम्राट सुदास श्रेष्ठ कर्म वाले ब्राह्मणों को दान करता है। इन्द्रदेव के तुल्य उनके श्लोक किये जाते हैं। संग्राम में उपस्थित होने पर युष्यामधि नामक रिपु को नदियों ने विनष्ट किया था। हे मरूद्गण! यह सम्राट सुदास के पिता है। आप इन्हीं के तुल्य सुदास की सुरक्षा करो। इनकी शक्ति क्षीण ना हो। आप इनके घर को भी सुरक्षित करें।
हे इन्द्रदेव! तुम पूजनीय हो। तुमने मरूद्गण के सहयोग से असंख्य को मृत किया। दुभीति की सुरक्षा के लिए तुमने दस्यु, चुभुरि और धुनि को मृत किया। हे वज्रिन! तुमने शम्बर के निन्यानबे किलों को ध्वस्त किया और सौवें नगर को अपने निवास के लिए रखा और वृत्र तथा नमुचि को मृत किया।
हे इन्द्र! तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करों और तुर्वशु तथा याध्द को अपने अधीन में कर लो। हे इन्द्रदेव! महान हवि द्वारा वंदनाओं ने तुम्हें हमारे प्रति हर्षित कर दिया है। तुम वंदनाकरियों की युद्ध भूमि में सुरक्षा करो और सदैव इनके सखा रहो। हमारे सदैव रक्षक बनो।
वृत्र शोषण के लिए हम इन्द्रदेव को ग्रहण होते हैं। पराक्रमी इन्द्रदेव को शरण प्रदान करो। वे उसकी सुरक्षा करते हैं। उन्होंने सुदास के लिए नव निर्मित प्रदेश को दिया। हे इन्द्र! तुमने अपनी शक्ति से अम्बर-धरा को युक्त किया। जब तुम रिपुओं पर वज्रव्याप्त करते हो तब सोमरस के द्वारा तुम्हारी सेवा की जाती है। कश्यप ने इन्द्रदेव को संग्राम के लिए प्रकट किया। वे इन्द्रदेव मनुष्यों के स्वामी और सेना के नायक हैं। यही रिपुओं के संहारक, धेनु के खोजने वाले और वृत्र का पतन करने वाले हैं।
हे वशिष्ठ! इस अनुष्ठान में इन्द्रदेव का पूजन करो। मैं उनकी सेवा में उपस्थित होना चाहता हूँ। वे मेरे आवाहन को सुनें। औषधियों की वृद्धि के समय में देवों की प्रार्थना की जाती है।
हे इन्द्र! आपकी आयु का ज्ञाता हम पुरूषों में कोई भी नही है। इन्द्रदेव हमारी वंदनाएँ ग्रहण करते हैं। उनकी समृद्धि से अम्बर, धरा विद्यमान हुए है। इन्द्रदेव ने रिपुओं को समाप्त कर डाला है। हे इन्द्र! सोम आपके लिए हर्षकारक हो । आप वंदनाकारी को पुत्रवान बनाओ। इस अनुष्ठान में हमपर हर्षित हो जाओ। वशिष्ठों के इस श्लोक द्वारा इन्द्रदेव की उपासना की जाती है। वे वंदनीय होकर महान् गवादि धन प्रदान करें और हमारा सदैव पोषण करते रहें।
जो सोमरस इन्द्र के लिए प्रस्तुत नहीं होगा, उनमें संतुष्टि नहीं होती। (यहाँ सोम का अर्थ तन्मयता से है। प्यार से है।) हमारा उक्थ इन्द्रदेव का आराधक है, हम उसे इन्द्रदेव के लिए ही उच्चारित करते है। वंदना के समय प्रस्तुत सोम इन्द्रदेव को तृप्त करता है। जैसे पिता पुत्र को पुकारता है, वैसे ही ऋत्विकगण (स्तुति स्वीकारने वाले) सुरक्षा के लिए इन्द्रदेव को आहूत करते हैं।
हे इन्द्र! जो आपकी बारम्बार प्रार्थना करते हैं, आप उनको धरा और स्वर्ग में विद्यमान करते हो। जो आपके लिए अनुष्ठान करता है, वह अयाज्ञिकों को मृत करने का बल पाता है।
- ऋषि वशिष्ठ: वशिष्ठपुत्र: –
वशिष्ठ वंशज ऋषि अपने सिर के दक्षिण भाग में चूडामाणि धारण करते हैं। वे हम पर कृपादृष्टि रखें । वशिष्ठों ने नदी को पार किया और रिपु को मृत किया। हे वशिष्ठों! दशराज नामक संग्राम में आपके श्लोक पितरों को तृप्त करने वाले हैं। आप क्षीणता को ग्रहण न होना। हे वशिष्ठों! आपने महान् ऋचाओं के द्वारा इन्द्रदेव से शक्ति को ग्रहण किया। भरतगण (प्रतृत्सु) रिपुओं से घिरे हुए और अल्पसंख्यक थे। जब वशिष्ठ उनके पंडित बने तब उनकी सतंती बढ़ोतरी को ग्रहण हुई। सूर्य, अग्नि, पवन, संसार को बल प्रदान करते हैं। उनकी आदित्य आदि श्रेष्ठ प्रजाएँ हैं, वे तीन उषाओं को प्रकट करते हैं, उन सभी के वशिष्ठ गण हैं। हे वशिष्ठों! तुम्हारा तेज सूर्य के तुल्य प्रकाशवान् है। हे वशिष्ठों! जब तुम देह धारणार्थ अपनी दीप्ति को त्याग रहे थे, तब तुम्हें सखा वरूण ने देखा उस समय, तुम एक जन्म वाले बने। अगस्त्य भी तुम्हें वहाँ ले आये।
हे वशिष्ठ! तुम उर्वशी के निकट मानसजन्म पुत्र सखा वरून की संतान हो। विश्वेदेवों ने तुमको पुष्कर मे श्लोक द्वारा धारण किया था। ज्ञानी वशिष्ठ दोनों जगत के ज्ञाता सर्वज्ञानी बने। यम द्वारा विशाल परिधान बुनने के लिए उर्वशी के द्वारा रचित हुए। अनुष्ठान मे पूजनीय सखा वरूण ने कुम्भ में अंकुर डाला। उसी से वशिष्ठ की रचना कही जाती है। हे प्रतृत्सुओं! वशिष्ठ तुम्हारे निकट आते है। तुम इनकी उपासना करो, यह वशिष्ठ समस्त कर्मों का उपदेश करने वाले हैं।
हे अग्ने! हमारे रिपु पतन को प्राप्त हो। जैसे सूर्य समस्त जगत को तपाते हैं, वैसे देवों के कृपापात्र सम्राट सेनाओं से रिपु को तपापते हैं, जब देव नारियाँ हमारे सामने पधारें तब त्वष्टा देव हमें अपत्यवान करें।
- ऋषि वशिष्ठः–
त्वष्टा हमारे श्लोक को सुनते हैं, वे हमारे लिए धन प्रदान करने की कृपा – दृष्टि करें। देवनारियाँ हमारे अभिष्ट को पूर्ण करें। अम्बर-धरा और वरून भी हमारी सुरक्षा करें। हम धारण याोग्य धन के रक्षक हों। सखा वरुण, इन्द्र, अग्नि, जल, औषधि, वृक्ष इत्यादि हमारी प्रार्थना को सुनें हम मरुदगण की शरण में सुखपर्वक रहें। तुम सदैव हमारा पोषण करो।
विश्वेदेवा छंन्द में ऋषि वशिष्ठ सभी देवों की वंदना करते हुए कहते हैं कि हे इन्द्राग्ने! हमारी सुरक्षा के लिए शक्ति प्रदान करने वाले बनो। हे इन्द्रवरुण! यजमान ने हवि को दिया है, तुम मंगलकारी रहो। इंद्रदेव और सोम कल्याण कारक हों। इन्द्र और पूषा हमें सुखमय करें। भग देवता भी हमको सुखी करें। सत्य संकल्प के द्वारा हम सुख प्राप्त करें। अर्यमा हमारा मंगल करें, धाता, वरुण, धरा और सर्वज्ञ देव का आवाहन हमें सुख देने वाले बने। ज्वालामुखी हमारे लिए शीतल बने मित्रावरुण,अश्विदय, पवन और पुण्य कर्म समस्त हमारे लिए शांति देने वाले हों। द्यावाधरा, अतंरिक्ष, औषधियाँ, वृक्ष और जगत स्वामी इन्द्रदेव हमें शक्ति प्रदान करें।
विश्वेदेवा, सरस्वती, यज्ञानुष्ठान, दान, धरा, अंबर, अंतरिक्ष, देवता, अश्वगण, धेनु, ऋभुगण हमें शक्ति प्रदान करने वाले हों। हमारे पितर भी हमें बल दें। अज, एकपाद, अहिर्बुधन्यदेव, समुद्र, अपान्नपात और पृश्नि हमें शक्ति प्रदान करें। इन नवीन श्लोकों को रचित हमने किया है। आदित्यगण, मरुदगण और वसुगण इनको सुनें।
अम्बर-धरा तथा समस्त यज्ञीय देव हमारे आवाहन पर ध्यान आकृष्ट करें। हे देवों! मनुप्रजापति! अविनाशी और प्रत्यक्ष देव हमें पुत्र प्रदान करें और तुम हमारी सुरक्षा करो।
सविता की प्रार्थना, अदिति, वरुण, सखा, अर्यमा, आदि देवता करते हैं। वे दानशील यजमान सविता की अराधाना करते हैं। अहिर्बुधन्यदेव हमारी प्रार्थना को सुनें और वाणी देवी हमारी समस्त तरह सुरक्षा करें।
रक्षार्थ मैं दध्रिका (अस्वरुपी अग्नि) का आवाहन करता हूँ। अश्विद्वय, उषा, अग्नि, भग, इन्द्र, विष्णु, पूषा, ब्रह्मणस्पति, आदित्यागण, अम्बर-धरा, जल और सूर्य का आवाहन करता हूँ।
यज्ञ के आरम्भ में दध्रिका का आवाहन करते हैं। दध्रिका का आवाहन करके अग्नि ऊषा, सूर्य और वाणी की प्रार्थना करता हूँ। वरुणदेव के घोडे का भी पूजन करता हूँ। समस्त देवता मुझे पापों से मुक्त करें। घोडों के मुख्य दध्रिका जानने योग्य बातों का ज्ञान करके उषा, सूर्य, आदित्यगण, वसुगण और अंगिराओं को साथ लाते हुए रथ अगले हिस्से में चलते हैं। वे अग्नि के तुल्य प्रकाशवान होकर हमको भी बल प्रदान करें।
हे रुद्र! जो बिजली, अंतरिक्ष, धरा पर विचरण करती है, हमारा पतन नहीं करें । तुम हजारों औषधियों वाले हो। हे रुद्र! हमारी हिंसा न करना तुम हमें कीर्ति का भागीदार बनाओ और सदैव हमारा पोषण करो।
जिन जलों से समुद्र बढोतरी करता है। वे जल प्रवाह परिपूर्ण हैं। जलदेवता अंतरिक्ष से आते हैं। इन्द्रदेव ने जिनको स्वतंत्र किया, वे जल हमारे रक्षक हों। जिन जलों में वरुण सोमपान करते हैं, उनसे और अन्न से विश्वदेवा हर्षित होते हैं और जिनमें वैश्वानर अग्नि का निवास है, वे जल- देवता हमारे रक्षक हों।
वास्तोष्पती: (वनस्पती) हे वास्तोष्पते, हम तुमसे सुखकारक एवं समृद्धि-सम्पन्न स्थल पाएँ तुम हमारे धन की सुरक्षा करो, सदैव हमारा पोषण करो। हे देवों! वंदना करने वाले को भय मुक्त करो। हे अग्ने, वरुण सखा, अर्यमा और मरुदगण! तुम जिस यजमान को उत्तम मार्ग पर चलाओ, वह रिपु को समाप्त करता है। हे मरुदगण! हमारे कुश पर विराजमान हो कर धन दान के लिए यहाँ पधारो और हर्षकारी सोम का पान करो।
हे अश्विद्वय! स्वर्ग की इच्छा करने वाले मनुष्य तुम्हारा आवाहन करते हैं। मैं वशिष्ठ भी तुम्हें सुरक्षा के लिए आहूत करता हूँ, तुम सभी के निकट गमन करने वाले हो । तुम जिस धन को धारण करते हो वह धन वंदना करने वाले को ग्रहण हो। तुम अपने रथ को यहाँ लाकर समान ह्रद्य से सोम पियो।
इसी प्रकार वशिष्ठ ऋषि ने उषसः के बारे में अपने छन्द में लिखा है, हे उषे! तुम्हारा तेज सुर्येादय से पहले प्रकट होता है। अंगिराओं ने गूढ तेज को ग्रहण कर मंत्रों के द्वारा उषा को प्रकट किया ।वे अंगिरा ही देवों से सुसंगत बने । वे सुसंगत होकर धेनुओं के तुल्य बुद्धि वाले बने। हे उषे! वंदनाकारी वशिष्ठ – वंशज ऋषि तुम्हारी प्रार्थना करते हैं। तुम धेनुओं और अन्न की सुरक्षा करने वाली हो। तुम्हारी पहली वंदना की जाती है। वंदनकारी के श्लोकों का उषा नेतृत्व करती है। यह अंधकार को मिटाती है और वशिष्ठों के द्वारा पूजनीय होती है।
हे उषे! वंदना करने वाले को अविनाशी अनुष्ठान दो, उन्हें गृह, अन्न और गवादि धन प्रदान करो। यथार्थवादिनी उषा हमारे रिपुओं को दूरस्थ करे।
हे वरूण देव! हम मनुष्यों से जो देवों का अपराध हुआ हो या अज्ञानवश तुम्हारे कार्य में कमी रह गई हो, उन गलतियों के कारण हमारी हिंसा मत करना। और अपनी कृपा दृष्टि हम सभी प्राणियों पर बनाये रखना।
हे इन्द्रदेव और वायु! उज्ज्वल रंग वाले पवन उन मनुष्यों को शरण देते हैं जिन्होंने उत्तम अपत्य प्राप्ति के लिए शक्ति रुप कार्यों को किया। जब तक तुम्हारी देह में शक्ति है तथा गति है, जब तक ज्ञान की शक्ति कर्मवान ज्योर्तिमान रहते हैं; तब तक तुम इन कुशों पर विराजमान होकर सोमपान करो।
हे वशिष्ठ! नदियों मे अत्यंत तीव्र गति वाली सरस्वती की प्रार्थना करो। उन्हीं की उपासना करो। हे उज्ज्वल रंग वाली सरस्वती! तुम्हारी कृपादृष्टि से अद्भुत और पार्थिव अन्न ग्रहण होते हैं। तुम हमारी सुरक्षा करो और हवि प्रदान करने वाले यजमानों के निकट धन भेजो। सरस्वती हमारा कल्याण करें। वे हमें अच्छी बुद्धि दें। जमदग्नि के तुल्य मेरे द्वारा वंदित होने पर वशिष्ठ की प्रार्थना को प्राप्त करो। हम वंदना करने वाले स्त्री-पुत्र की इच्छा वाले हैं। हम सरस्वान देवताओं की वंदना करते हैं। हम सरस्वान देव के जलाधार को ग्रहण करें; वह देव सभी के दर्शन योग्य हैं। उनसे हम बढोतरी और अन्न को प्राप्त करें।
जिस अनुष्ठान में समस्त सवनों में इन्द्रदेव के लिए सोामभिषव है, उस अनुष्ठान में सबसे पहले इंन्द्रदेव अपने घोडे से युक्त पधारें। हम देवों से सुरक्षा की विनती करते हैं। बृहस्पति हमारी हवि को प्राप्त करें। मैं उन ब्रह्मणस्पति को नमस्कार और हव्य अर्पण करता हूँ। जो श्लोक मंत्रो से उत्तम हैं, वही श्लोक इन्द्रदेव की सेवा करें। ब्रम्हणस्पति हमारी वेदी पर पधारें। ये हमारी अन्न और जल की इच्छओं को पूर्ण करें। हम जिन बाघाओं से घिरे हैं, वे उनसे पार लगायें। अविनाशी अन्न दें। हम अनुष्ठान योग्य बृहस्पति का आवाहन करते हैं।
बृहस्पति के अनेक वाहन हैं। वंदनाकारी को वे वाहन प्रचुर अन्न ग्रहण कराते हैं। माता रुपी धावाधरा ब्रहस्पति को अपनी समृद्धि से बढ़ायें। सखा वरुण भी उन्हें बढ़ायें।वे जलों को अन्न के लिए द्रव रुप में कार्य करते हैं। संखा वरूण भी उनकी वृद्धि करें। तुम हमारे अनुष्ठान की सुरक्षा करो। हमारे आक्रमण करने वाली रिपुसेना (शत्रुओं की सेना) का पतन करो। हे बृहस्पति और इन्द्रदेव! तुम पार्थिव और अदभुत धन के स्वामी हो। वंदनाकारी को धन देने वाले हो। हमें भी अपने आर्शिवाद से कृतार्थ करो।
देवता इन्द्रविष्णु विष्णुः हे इन्द्र और विष्णो! तुमने सूर्य अग्नि और उषा को प्रकट कर यजमान के लिए स्वर्ग की उत्पत्ति की है। तुमने युध्द क्षेत्र में दस्यु की माया का पतन किया है। हे इन्द्र विष्णो! तुमने शम्बर के निन्यानवे (99) नगरों को धवस्त किया और व्रचि के शत हजारों पराक्रमियों का पतन किया। वंदना इन्द्र और विष्णु की शक्ति को बढ़ाएगी। हे इन्द्र और विष्णुो! युध्द भूमि में तुम्हें अपर्ण किया है, तुम हमारे अन्न की बढोतरी करो। हे विष्णों! मैंने अनुष्ठान में प्रार्थना की है, तुम हमारे हव्य को स्वीकृत करो। और सदा अपने आशिर्वाद से परिपूर्ण करो और सदैव हमारा पोषण करो।
विष्णुः जो विष्णु के लिए हवि देता है और मंत्रों के द्वारा उपासना को करता है, वह धन की इच्छ़ा करने वाला मनुष्य शीघ्र ही धन को पा जाता है। विष्णु ने धरा पर तीन बार चरण रखा प्रवृद्ध विष्णु हमारे भगवान हैं; वे अत्यंत तेजस्वी हैं। विष्णु ने धरा को निवास हेतु की कामना से पाद- प्रेक्षप किया और विशाल स्थल की उत्पत्ति की। हे विष्णो! हम तुम्हारे विख्यात नामों का कीर्तन करेंगे। तुम प्रवृद्ध की हम अप्रवृद्ध मनुष्य वंदना करेंगे। हे विष्णो! मैंने जो तुम्हारा सिपिविष्ट नाम किया, वह क्या उचित नहीं है? युद्धों में तुमने अनेक रुप धारण किए हैं। तुम उन रुपों को हमसे मत छिपाओ।
इसी प्रकार ऋग्वेद के चारो अध्यायों में सभी ऋषियों ने अपने-अपने तरीके से सभी देवी-देवताओं की वंदना की है और सभी को एक-दूसरे का पूरक बताया है। इसमें इन्द्र और अग्नि के विषय पर ज्यादा जोर दिया है।