अध्याय – 3
- ऋषि- विश्वामित्र: –
यह छंन्द अग्नि को सर्मर्पित है। सदैवगतिमान अग्नि के लिए जिस उषाकाल में हवि प्रदान करते हुए अनुष्ठान किया जाता है वह उषाकाल सुसज्जित है। वह उषाकाल धन ऐश्वर्य से परिपूर्ण होकर प्रकाशयुक्त होता है।
गुफा मे वास करने वाले रिपु और उनकी सेनाओं को पराजित करने वाली अग्नि को द्वेष शुन्य विश्वेदेवों ने ग्रहण किया।जैसे स्वेच्छाधारी पुत्र पिता को अपनी तरफ आकर्षित करता है। वैसे ही इच्छा पूर्वक रमे हुए अग्नि को मथकर मातारिश्वा देवों के लिए ले आये। हे अग्ने! हम समस्त इच्छित धनों को ग्रहण करें, समस्त देवगण तुममें ही बसे हुए हैं ।
हे इन्द्राग्ने! तुम अद्भुत जगत को शोभायमान करते हो। संग्राम मे होने वाली विजय तुम्हारी ही शक्ति का फल है।
- ऋषि-ऋषभो विश्वामित्रः–
हे अध्यवर्युओ! अग्नि के लिए प्रार्थना करो यह अग्नि देवों से युक्त पधारें । यजन करने वालों में सर्वोपरि अग्निदेव कुश के आसन पर विराजमान हों।
हे अग्ने! हम अपने हाथों से आज तुम्हें श्रेष्ठ हवि देंगे। हमारे द्वारा देवों की उपासना करो। हे शक्ति उत्पन्न अग्ने! तुम्हारी रक्षण शक्ति यजमान को प्राप्त होती है। तुम्हीं से वह अन्न ग्रहण करता है। तुम हमारे प्रिय श्लोकों से हर्षित हुए अनेकों संस्था वाला धन प्रदान करो।
- ऋषि-उत्कीलः कात्यः –
हे अग्ने! तुम जगत को सदा प्राचीन बनाते हो। तुम महान मतिवाले और ज्योर्तिमान हो। देवों के लिए तुम हमारे समस्त कार्यों को निर्दोष बनाओ। तुम रथ के तुल्य यहाँ रुककर देवों के लिए हमारी हवियाँ पहुँचाओ। क्षितिज और धरा को हमारे अनुष्ठान से व्याप्त करो। हे बलोत्पन्न अग्निदेव! तुम हमको रिपुओं से प़िडित़ न होने देना हम पराक्रम से शून्य न हों। पशुओं से पृथक एवं निन्दा के पात्र भी न हों। तुम हमसे रुष्ट न होना।
हे वरणीय अग्निदेव! तुम अत्यंत वैभववान हमको सुख देनेवाला और अनुष्ठान से वृद्धि करने वाला धन प्रदान करो।
- ऋषि- कतो विश्वामित्रः–
हे जन्म से मतिमान अग्निदेव! अनुष्ठान को मनु के तुल्य संपन्न करो। तुम्हारा अन्न, आज्य (पंचगव्य, घी), औषिधि और सोम, तीनों रूपों वाला है। हे मेधावी, तुम उनके युक्त देवों को हवियाँ प्रदान करो। तुम यजमानों को सुख और कल्याण ग्रहण कराने में समर्थ हो।
हे अग्ने! सखा और माता-पिता के समान हितैशी बनो। हम पर प्रसन्न रहो। मैं धन कामना से तुम गतिमान और बलशाली को समिधा और धृत परिपूर्ण हवि प्रदान करता हूँ। तुम विश्वामित्र के वंशजो द्वारा वंदना किये जाकर उन्हें धन से संम्पन्न बनाओ अन्न प्रदान करते हुए आरोग्य और निर्भयता भी दो। हम तपस्वी बारम्बार तुम्हारी तपस्या करेंगे। वेदों मे सभी ऋषियों ने अग्नि को सर्वोपरिस्थान देते हुए उनकी वंदना की है।
- ऋषि -कोशिको गाधीः–
हे अग्ने! अनुष्ठान में विराजमान मेधावी ऋषिगण तुम्हें होता कहते हैं। तुम हमारी सुरक्षा के लिए पधारो। हमारे पुत्रों को अन्नवान करो। दधिक्रावा, अग्नि, उषा, बृहस्पति, तेजस्वी सूर्य, दोनों अश्विनी कुमारों, भव, वसु और समस्त आदित्यों का इस यज्ञानुष्ठान में आवाहन करता हूँ।
हे अग्ने! हम अत्यंत साररुप स्नेह तुम्हें प्रदान करेंगे हवि की जो बूंदें तुम्हारे लिए गिरती हैं उनमें से बाँटकर देवों को पहुँचाओ।
- ऋषि देवश्रवा, देववतिश्च भारतो: –
यह प्राचीन रमणीय अग्निदेव दसों अंगुलियों द्वारा रचित होते है। हे देवश्रवा! अरणि से रचित, अदभुत पवन प्रकट हुए अग्निदेव का पूजन करो। ये अग्नि प्रार्थना करने वालों के ही वंश में होते हैं।
हे अग्ने! तुम दृषद्वती, आपगा और सरस्वती इन तीनो नदियों के समीप निवास करने वालों के गृहों में धन से परिपूर्ण प्रदिप्त रहो।
हे अग्ने! हमारे कुल की बढ़ोतरी वाला संतानोत्पादन में समर्थवान पुत्र हमको प्रदान करो, हम आपके कृतज्ञ रहेंगे।
- ऋषि-विश्वामित्रः–
हे अग्ने! हम हवि प्रदान करने वालों को पौरुष से परिपूर्ण धन प्रदान करो। हम धन, संतान परिपूर्ण हों, हमारी बढ़ोतरी हो।
हम कोशिक जन धन की कामना से हवि संगठित करते हुए वैश्वानर अग्नि का आवाहन करते हैं। उज्जवल रंगवाले वैश्वानर, बिजलीरुप अनुष्ठान में शरण ग्रहण करने के लिए हम आहूत करते हैं।
मैं अग्नि जन्म से ही मेधावी हूँ। अपने रुप को भी अपने- आप प्रकट करता हूँ। रोशनी मेरी आँखे हैं। जीभ में अमृत है। मैं विविध प्राण परिपूर्ण एवं अंतरिक्ष का मापक हूँ मेरे तार का कभी क्षय नहीं होता। मैं ही साक्षात हवि हूँ।
सुन्दर प्रकाश को मन से जानने वाले अग्नि देव, पवन ने सूर्य रुप धारण कर अपने को समर्थ बनाया। अग्नि ने इन रुपों में प्रकट होकर अम्बर-धरा के दर्शन किए थे।
हे ऋत्विजो, स्रुक- परिपूर्ण हवि वाले देवता मास, अर्द्धमास, आदि यजमान को सुखी करने के लिए अभिलाषी हैं। वह यजमान देवों की कृपादृष्टि ग्रहण करता है। अनुष्ठान सम्पन्नकर्ता, प्रज्ञावान, समृद्धिवान, गतिशील अग्निदेव को मैं श्लोकों से युक्त पूजता हूँ। कार्यो के द्वारा वरण करने योग्य भातों के कारण रुप पिता -तुल्य अग्निदेव को दक्षपुत्री (धरा) धारण करती है।
हे शक्ति रचित अग्निदेव! तुम महान दिप्ति वाले, हवियों की अभीलाषा वाले और वरण करने योग्य हो तुम्हें दक्षपुत्री इला धारण करती है।
हे ज्ञानवान अध्यावर्युओं! ऊर्ध्ववाली अरणी पर नीचे मुख वाली अरणि को रखो। अतिशीघ्र उष्ण होने वाली अरणि ने इच्छाओं की वृष्टि करने वाले अग्निदेव को प्रकट किया। उस अग्नि में दाहक गुण था । श्रेठ दीप्ति वाले इला पुत्र अग्नि अऱणि द्वारा रचित हुए।
हे विज्ञानी अग्निदेव! हम तुम्हें धरा की नाभी रुप उत्तर वेदी में वहन करने के लिए विद्यमान करते हैं।
हे अग्ने! काष्ठवाली अरणी तुम्हारा प्राकट्य- स्थल है। तुम इसमे प्रकट होकर सुशोभित हो। (जिस अग्नि का विशाल रुप कभी नही होता, उसे तनुनपात कहते हैं। जब वह साक्षात होते हैं, तब वह आसुर और नारशंस कहलाते हैं। और जब अंतरिक्ष में अपने तेज को व्याप्त करते हैं, तब मातरिश्वा कहलाते हैं। जब वह प्रकट होते हैं तब पवन के समान होते हैं।)
रिपुओं से मरुदगण के तुल्य द्वन्द करने वाले ब्रह्मा द्वारा पहले रचित कोशिक ऋषियों ने संम्पूर्ण जगत को जाना। वे अपने गृह में अग्नि को ज्योर्तिमान करते और उनके प्रति हवि प्रदान करते हुए वंदनाए करते हैं। इसी प्रकार इंन्द्र की वंदना करते हुए विश्वामित्र कहते हैं, तुमने अनन्त व्यापक और गतिमान धरा को दृढ किया था। तुमने अम्बर और अंतरिक्ष को ऐसे धारण किया जिसमें वह गिर न सके। हे इन्द्रदेव! तुम्हारी शिक्षा से जल धारा को ग्रहण हो । इन्द्रदेव से ही सूर्य शिक्षा पाते हैं। ज्योर्तिमान दिशाओं में रोज विचरण करते हैं। इस प्रकार असंख्य महान कर्म इन्द्रदेव के ही हैं।
इंद्रदेव ने महान गुण वाले जल को नदियों से संयुक्त किया, इंद्रदेव ने अत्यंत स्वादिष्ट दही, खीर, भोजन को जलरुप धेनु में धारण किया, वह सब प्रसूता धेनुएँ दुग्धवती हुई विचरण करती हैं।
हे इंन्द्रदेव! स्वर्ग की इच्छा वाले तथा सुख प्राप्ति की कामना वाले कर्मवान कोशिकों ने महान मन्त्रों से तुम्हारी प्रार्थना की है ।
इंन्द्रदेव के लिए अंगिराओं ने अपने पवित्र एंव उज्ज्वल श्रेष्ठ स्थान का संस्कार किया। श्रेष्ठ कर्म वाले अगिराओं ने इंद्रदेव के योग्य इस सुन्दर स्थल को दिखाया। उन्होंने अनुष्ठान मे विराजमान होकर अम्बर-धरा के बीच अंतरिक्ष रुप खम्भे का आरोपण कर इंन्द्रदेव को स्वर्ग में विद्यमान किया था ।
इंन्द्रदेव ने भलीभाँति विचार कर मित्रों को भूमि और स्वर्ण रुप धन प्रदान किया फिर उन्होंने गवादि धन भी प्रदान किया।वे अत्यंत तेजस्वी है। उन्होंने ही मुरूदगण, सूर्य, उषा, धरा और अग्नि को प्रकट किया है।
हे इंन्द्रदेव! तुम प्राचीन हो। अगिंराओं के तुल्य मैं तुम्हारा पूजन करता हूँ। मैं तुम्हारे लिए नयी वंदनाएँ प्रस्तुत करता हूँ। हे इन्द्रदेव! दुग्घादि से परिपूर्ण संस्कारित नवीन सोम का पान करो।
इसी प्रकार जल (नदियों)को समर्पित यह छंन्द है इसमें विश्वामित्र कहते हैं, जल से परिपूर्ण प्रवाह वाली विपाशा और शतद्रु नदियों इन्द्रदेव तुम्हें शिक्षा प्रदान करते हैं। जननी के तुल्य सिंन्धु नदी और उत्तम सौभाग्यशाली विपाशा नदी को ग्रहण होता है। ये नदी जल से पूर्ण हुई भूमि प्रदेशों को सिंचित करती हुई परमात्मा के रचित स्थल पर चलती है। इनकी चाल कभी रुकती नहीं हम इन नदियों के अनुकूल होते ही ग्रहण होते है।
हे जल से परिपूर्ण नदियों, मेरे सोम सम्पन्नता के कर्म की बात सुनने के लिए एक क्षण के लिए चलते- चलते रुक जाओ। मैं कुशिक पुत्र विश्वामित्र बृहत वंदना से हर्षित और अपनी अभिष्ट पूर्ति के लिए इन नदियों का आवाहन करता हूँ ।
हे इन्द्रदेव! यह निष्पन्न सोम सभी के लिए वरण करने योग्य है। इसे अपने उदर में रखो यह अत्यंत उज्ज्वल सोमरस तुम्हारे स्वर्ग मे वास करता है।
हे इंन्द्रदेव! तुम प्राचीन हो। हम कोशिक वंशी ऋषिगण तुम्हारे द्वारा रक्षा साधन ग्रहण करने की इच्छा करते हुए, इस संस्कारित सोम का पान करने के लिए सुन्दर, प्रार्थना रुप वाणी से तुम्हारा आवाहन करते हैं।
हे इंन्द्रदेव! मुझे मनुष्यों की सुरक्षा करने की सामर्थ्य प्रदान करो। तुम परिपूर्ण रहते हो मुझे सभी का अधिपत्य पधिपत्य प्रदान करो। मुझे ऋषि बनाओ और सोम पीने के योग्य बनाते हुऐ कभी भी क्षय न होने वाला धन प्रदान करो।
तुमने रचित होते ही प्यास लगने पर पर्वत पर स्थित सोमलता का रसपान किया था। तुम्हारी जननी आदिती ने तुम्हारे पिता कश्यप के घर में स्तन पिलाने से पूर्व सोमरस को तुम्हारे मुख में डाल दिया था।
इंन्द्रदेव ने जननी से अन्न् माँगा । तब उन्होंने सभी के स्तन में दुग्ध रुप उज्ज्वल सोम का दर्शन किया ।
हे वंदना करने वाले, इंन्द्रदेव श्रेष्ठ है, उनकी प्रार्थना करो। इंन्द्रदेव द्वारा रक्षित हुए समस्त मनुष्य यज्ञ में सोमपान करते हुए इच्छित फल प्राप्त करते हैं, देवगण, अम्बर और धरा के लिए ब्रह्म द्वारा जगत के स्वामी बनाये गये श्रेष्ठ कार्य वाले पाप विनाशक इन्द्रदेव को प्रकट किया ।
इन्द्रदेव का अनुशासन मनुष्यों में व्यापक है। उनके लिए ही धरा श्रेष्ठ समृद्धि धारण करती है। इन्द्रदेव के आदेश से सूर्य, औषधियों, मनुष्यों और वृक्षों के उपभोग के लिए अन्न की सुरक्षा करते हैं।
विश्वामित्र के वंशजों ने वज्रधारी इंन्द्रदेव का पूजन किया है। वे इंन्द्रदेव हमको धन से सुशोभित करें ।
विश्वेदेवा: – इस छन्द में ऋषि कहते हैं, धन का कारण भूत यह श्लोक और अर्चना के योग्य हवि इस श्रेष्ठ अनुष्ठान में बहुत कार्य करने वाले विष्णु को प्राप्त हो सभी को रचित करने वाली दिशायें जिन विष्णु को समाप्त नहीं कर सकतीं। वे विष्णु अत्यंन्त सामर्थ्यवान हैं। उन्होंने अपने एक पैर से समस्त जगत को ढँक लिया था।
जैसे, सूर्य, क्षितिज और धरा के बीच उनकी सामर्थ है, वैसे ही देवों के सन्देशवाहक प्राणिमात्र का पोषण करने वाले अग्नि औषधियों में व्याप्त हैं, विविध रुप धारी हमको अत्यंन्त कृपादृष्टि से देखें। समस्त देवताओं की श्रेष्ठ शक्ति एक ही है।
धरा और अम्बर दोनों ही माता और पुत्री के तुल्य हैं। धरा समस्त जीवों को रचित करके उनका पालन करने के कारण जननी तथा क्षितिज से वृष्टि के जल को दुग्ध के तुल्य प्राप्त करने के कारण पुत्री रुप है।
एक संवत्सर वसन्तादि ऋतुओं को धारण करता है। सत्व के आधारभूत सूर्य से परिपूर्ण संवत्सर को किरणें ग्रहण करती हैं। तीनों जगत ऊपर ही स्थिर है। स्वर्ग और अंतरिक्ष गुफा में छिपे है। केवल धरा ही प्रत्यक्ष है।
हे नदियों, त्रिगुणात्मक और त्रिस्ंख्यक जगत में देवता वास करते है। जगत-त्रय के रचनाकार सूर्य अनुष्ठान के भी मालिक हैं। अंतरिक्ष से चलनेवाली जलवती इला, सरस्वती और भारती अनुष्ठानों के तीनों सवनों मे रहे।
वे सवितादेव सवन में तीन बार हमको समृद्धि प्रदान करें। कल्याण रुप हाथवाले राजा, सखा और वरुण, अम्बर-घरा तथा अंतरिक्ष आदि देवता सवितादेव से समृद्धि -वृद्धि की विनती करें।
हे ऋभुओं! तुम सुधन्वा के वंशज हो, तुम इन्द्रदेव के संग एक ही रथ पर चढव़र सोम सिद्ध करने वाले स्थल में जाओं फिर मनुष्यों के श्लोकों को स्वीकृत करो।
हे इन्द्रदेव! तुम इन्द्राणी- सहित तथा ऋभुओं से परिपूर्ण होकर हमारे तीसरे सवन में आनंद का लाभ प्राप्त करो। हे इन्द्र! दिवस के तीनों सवनों में यह सवन तुम्हारे सोम पीने के लिए निश्चित है। वैसे देवों के भी प्रति और मनुष्यों के समस्त कर्मो द्वारा सभी दिन तुम्हारी अर्चना के लिए महान है।
हे अग्ने! ऊषा तुम्हारे सम्मुख आती है। तुम उससे हवि की विनती करते हुए सुखाकारक धनों को पाते हो।
इसी प्रकार ऋषि विश्वामित्र ने अपने छंदों में देवता इन्द्रावरुणौ, बृहस्पति, पुषा, सविता, सोम, मित्रावरुणो; सभी के लिए वंदना की है।
- ऋषि वामदेव गौतमः–
ऋषि वामदेव ने अग्नि की वदंना मे बहुत सारे छंद लिखे हैं।
ऋषि कहते हैं, हे अग्ने! तुम हमारी संतान को सुख प्रदान करो और हमको कल्याण प्रदान करो।
अग्नि के तीनो रुप- अग्नि, पवन और सूर्य विख्यात एंव महान हैं। अनन्त अंम्बर में अपने तेज से व्याप्त सभी को पवित्र करने वाले, ज्योति से परिपूर्ण और अत्यंत तेजस्वी अग्नि हमारे अनुष्ठान को ग्रहण करें।
हे अग्ने! वंदना करने वाले अंगिरा आदि ऋषि्यों ने वाणी रुपिणी जननी से रचित वंदनाओं के साधन को शब्दों मे पहली बार ज्ञान ग्रहण किया, फिर सत्ताईस छन्दों को जाना। इसके बाद इसके जाननेवाली उषा की प्रार्थना की और तभी आदित्य के तेज -परिपूर्ण अरुण रंग वाली उषा का अविर्भाव हुआ।
रात्रि के द्वारा रचित अंधकार उषा के मार्गदर्शन से ढृढ हुआ, फिर अंन्तरिक्ष ज्योर्तिमान हुआ। उषा की ज्योति प्रकट हुई। फिर मनुष्यों के सत्यासत्य कार्येा को देखने मे समर्थवान आदित्य सुदृढ पर्वत पर चढ़ गये।
सूर्य के उदित होने पर, अंगिरा आदि ऋषियों ने पाणियों के द्वारा चुरायी गई धेनुओं को जाना तथा पीछे से उन्हें भलिभाँति देखा।
हे सखा की भावना से ओत-प्रोत अग्निदेव! तुम वरुण के गुस्से को शांत करनेवाले हो। तुम्हारी उपासना करने वाले को फल की प्राप्ति हो।
हे अग्ने! तुम्हारे अश्व, रथ, एंव समृद्धि सभी में उत्तम है। अर्यमा, वरुण, सखा, इन्द्र, विष्णु, मरुदगण तथा दोनो अश्विनी कुमारों को हविपरिपूर्ण यजमानों के लिए हम मनुष्यों के बीच पुकारो ।
हे अग्ने! जिस कारण़ से तुम्हारी हम कामना करते हुए हाथ-पैर तथा शरीर को कार्यरत करते हैं, उसी शरीर के कारण उस अनुष्ठान – कार्य में सलंग्न हुए अंगिरा आदि ऋषियों ने हाथों से अरणी मंथन द्वारा शिल्पों के पथ- निर्माण करने के समान तुम्हें सत्य के कारण रुप को प्रकट किया । हम सात विप्र आरम्भिक मेधावी है। हमको माता रुप ऊषा के आरम्भिक काल में अग्ने ने रचित किया है। हम ज्योर्तिमान,आदित्य के पुत्र अंगिरा हैं। हम तेजस्वी होकर जल से पूर्ण बादलों को विदीर्ण करेंगे।
हे अग्ने! हमारे पितरों ने महान परम्परागत और सत्य के कारण रुप अनुष्ठान कार्यों को करके उत्तम पद तथा तेज को प्राप्त किया । उन्होंने उक्थों के द्वारा अंधकार का पतन किया और पाणियों अपहत धेनुओं को खोज निकाला।
हे अग्ने! हम तुम्हारी अर्चना करते हैं, उसी से हम महान कर्म वाले बनते हैं। तुम महान हो। हम तुम्हारे लिए श्लोकों का उच्चारण करते हैं, तुम हमको ग्रहण करो। हमें उत्तम धन प्रदान करो। महान गृह में श्रेष्ठ निवास हमको प्रदान करो।
वैश्वानर: – जिन अग्निदेव की दुग्ध देने वाली धेनु, अनुष्ठान आदि शुभ कार्य में सेवा करती है, जो अग्नि अपने – आप में ज्योर्तिमान है, जो गुफा मे वासित है, जो शीघ्र गतिमान एंव वेगवान है। वे महान पूजनीय है। सूर्यमंडल में विद्यमान उन वेश्वानर अग्नि को हम भलीभाँति जानते हैं।
हे अग्ने! तुम प्राचीन हो। अत्यंत मेधावी हो, महान एवं देवों के संदेशवाहक हो तुम देवों के लिए हवि पहुँचाने के लिए स्वर्ग के उच्चतम स्थान को भी ग्रहण करो । तुम्हारी प्राप्ति के लिए, तुम्हारी रचना के कारण काष्ठ को प्राप्त किया जाता है और तुम रचित होते ही यजमान के दूत बन जाते हो। अरणियों को मथने के बाद देखते हैं। रचित होने वाले अग्नि के तेज को ऋत्विज आदि ही देखते हैं।
अग्नि श्रेष्ठ है। वे जल्द विचरण करने वाले संदेश वाहाक बन जाते हैं। वे काष्ठों को जलाकर पवन के साथ मिश्रित हो जाते हैं। जैसे अश्वरोही अपने घोडे को पुष्ठ करते हैं और शिक्षा देते हैं।
वे लिखते हैं, हे अश्विनी कुमारो! तुम दोनों उज्जवल कांन्तिवाले हो। सहदेव के पुत्र राजा सोमक को तुम दीर्घ आयु प्रदान करो ।
हे इंन्द्रदेव! तुम पराक्रमी हो। तपस्वीगण उन इंन्द्रदेव का सुन्दर आवाहन करते हैं। हे इंनद्रदेव! मनुष्यो द्वारा होने वाले संग्राम में हमारे मध्य तीक्ष्ण वज्रपात हो या रिपुओं से हमारा अत्यंत घोर युद्ध हो, हमारी देह को अपने नियंत्रण में रखते हुए प्रत्येक तरह से हमारी रक्षा करना।
इन्द्रादिती! यह रास्ता अनादि काल से चलता आ रहा है जिसके द्वारा विभिन्न भोगों और एक-दूसरे को चाहने वाले नर – नारी ज्ञानी जन आदि रचित होते हैं। उच्चस्थ पदवी वाले समर्थवान व्यक्ति भी इस परम्परागत रास्ते में ही रचित होते हैं। मनुष्यों अपनी जननी माता का अनादर करने का प्रयास न करो।
हे इन्द्रदेव! जैसे माताएँ पुत्र के निकट जाती हैं, वैसे ही मरुतगण तुम्हारे निकट गये थे। वैसे ही वृत पतन के लिए तुम्हारे पास पहुँचा था, तुमने नदियों को जल से युक्त कर डाला। बादलों को विदीर्ण कर वृत द्वारा रोके हुए जल को गिरा दिया।
हे इंन्द्रदेव! हम तुम्हारे लिए नवीन श्लोकों को कहते हैं, जिसके द्वारा हम रथीवान् बनें तुम्हारी वंदना और परीचर्या करते रहें।
हे इन्द्रदेव! तुम प्रार्थना के पात्र हो। तुम जिन शक्तियों को प्रकट करते हो तुम्हारी उन्हीं शक्तियों को मेधावीजन सोम के सिद्ध होने पर उच्चराण करते हैं। हे इन्द्रदेव! श्लोकों को वहन करने वाले गोतम -वंशज श्लोक से तुम्हे बढोतरी करते है। तुम उन्हें पुत्रादि से परिपूर्ण अन्न् प्रदान करो।
हे इंन्द्रदेव! तुम हमारे पुरोडाश का सेवन करो । जैसे पुरूष स्त्रीयों के संकल्पों को सुनता है उसी प्रकार तुम हमारे संकल्पों को ध्यान से सुनो।
उस पुरुष रुप वाले ऋभुओं ( दिमागदार,होशियार) ने जो कहा वही किया। उनका कथन सत्य बना। फिर वे ऋभुगण तीसरे सवन में स्वधा के अधिकारी बने। दिन के तुल्य ज्योर्तिमान चार चमसों को देखकर त्वष्टा ने कामना करते हुए प्राप्त किया। प्रत्यक्ष ज्योर्तिमान सूर्य के जगत में जब वे ऋभुगण आर्द्रा से वृष्टि कारक बारह नक्षत्रों तक अतिथी रुप में रहते हैं। तब वे वृष्टि द्वारा कृषि को धान्य पूर्ण करते और नदियों को प्रवहमान बनाते हैं। जल से पृथक स्थल में औषधियाँ रचित होती हैं और निचले स्थलों में जल भरा रहता है। उत्तम कार्य वाले छोटे-बडे ऋभु इंन्द्र से संबंधित बने। जिन ऋभुओं ने दो अश्वों को बढोतरी प्रशंसा द्वारा संतुष्ट किया, वह ऋभु हमारे लिए कल्याण कारक मित्र के तुल्य धन, जल, ग्वादि और समस्त सुख प्रदान करें। चमस आदि के बनने के बाद देवों ने तीसरे सवन में तुम्हारे लिए सोमपान से रचित हर्ष प्रदान किया था। देवगण तपस्वी के अलावा किसी अन्य के सखा नहीं बनते । हे ऋभुओं! इस तीसरे सवन में तुम हमारे लिए अवश्य ही फल प्रदान करो।
हे ऋभुगण! तुम अन्न के स्वामी हो। जो यजमान तुम्हारे आनन्द के लिए दिवस के अन्तिम दिन के अंतिम समय को छानता है, उस यजमान के लिए तुम श्रेष्ठ अभिष्ट वर्षी होते हुए अनेक अनेक संतान परिपूर्ण धन के देनेवाले होते हैं। हे अश्ववान इन्द्रदेव! सुसिद्ध सोम प्राप्त सवन में केवल तुम्हारे लिए ही है । हे इन्द्रदेव! अपने उत्तम कर्म द्वारा तुमने जिनके संग मित्रता स्थापित की, उन रत्न दान करने वाले ऋभुगण युक्त तीसरे सवन में सोम पान करो। हे ऋभुगण! तुमने अपने उत्तम कार्यों से देवत्व ग्रहण किया। तुम श्येन के तुल्य क्षीतिज में ग्रहण हो। हे सुधन्वा पुत्रो! तुम अनरत्व ग्रहण कर चुके हो, हमें धन प्रदान करो। हे ऋभुओं, तुम महान हो, हस्त कला से परिपूर्ण हो। तुम सुन्दर सोम परिपूर्ण तीसरे सवन को महान कार्यों की कामना से सुसिद्ध करते हो। अतः हर्षित हृद्य से सोम का पान करो।
हे ऋभुओं! तुमने एक चमस के चार हिस्से किये। अपने उत्तम कार्य से धेनु को चमडे से ढ़का इसलिए तुमने देवों का अविनाशी पद ग्रहण किया। तुम्हारे समस्त कार्य प्रार्थना के योग्य हैं।
हे मित्रवरुण! तुम देदिप्यमान अग्नि के तुल्य दुःखो के पार लगाने वाले दध्रिका (अश्वरुपी अग्नि ) मनुष्यों की भलाई के लिए धारण करने वाले हो। जो यजमान उषा काल में अग्नि प्रज्वलित होने पर घोडे रुप दध्रिका का पूजन करते हैं, उनको सखा, वरुण, अदिति और दध्रिका पापों से बचाएँ । तुम पुरुषों को शिक्षा प्रदान करने वाले अश्व के रुप वाले दध्रिका देव को हमारे लिए धारण करो । उन दध्रिका देव की हम बारम्बार उपासना करेंगे। समस्त उषाएँ हमको कार्यों में संल्गन करें । जल, अग्नि, उषा, सूर्य, बृहस्पति, अंगिरा वंशज और विष्णु का हम संमर्थन करेंगे ।
श्येन ( बाझ पक्षी ) के तुल्य शीघ्रगामी एंव सुरक्षा करने वाले दघिक्रा (अश्वरुपी अग्नि) के समस्त तरफ संगठित होकर समस्त अन्न के लिए जाते हैं। यह देव अश्वरुप वाले हैं। यह काष्ठ कक्ष और मुख बँधे हुए होते हैं और पैदल ही तेजी से चलते हैं। अव्यवस्थित अम्बर में पवन अंतरिक्ष में और होता अनुष्ठान आदि पर आते हैं। अदिति के तुल्य पूजनीय होकर गृह में वास करते हैं, ऋतु पुरुषों में रमणीय स्थल तथा अनुष्ठान – स्थान में रहते है। वे जल रश्मि, सत्य और पर्वत में रचित हुए हैं।
हे प्रसिद्ध इन्द्र और वरुण देवता, हम वंदना करने वालों को सुन्दर धन प्राप्त कराने वाले बनो ।
- ऋषि- परुमीढाजमीढौ सौहात्रौ: –
हे अश्विनी कुमारो! जिनका सूर्य की पुत्री सुर्या ने आदर किया था, वो कोई और नही अश्विनी कुमार हैं। हे अश्विनी कुमारो! रात्रि के अवसान होने पर इन्द्रदेव जैसे अपनी व़ीरता दिखाते हैं, वैसे ही तुम दोनों सौभाभिषव़ के समय पधारो।
हे अश्विनी कुमारो! तुम्हारा रथ अम्बर से चतुर्दिक अधिकाधिक विचरणशील है। यह समुद्र में भी चलता है। तुम्हारे लिए परिपक्व जौ के तुल्य सोमरस मिश्रित हुआ है। तुम मृदुजल के रचित करने वाले हो और रिपुओं का पतन करने में समर्थवान हो। यह अध्वर्य तुम्हारे लिए सोमरस में दुग्ध मिला रहे हैं। बादल द्वारा तुम्हारे घोड़ों को अभिषिक्त किया गया है। ज्योति में ज्योर्तिमान ये तुम्हारे घोड़े पक्षियों के तुल्य है। जिस रथ के द्वारा तुम दोनों ने सूर्या की सुरक्षा की थी, तुम दोनों का वह विख्यात रथ शीघ्रता से चलने वाला है तुम शोभन अन्न से परिपूर्ण हो। हम वंदनकारियों के रक्षक बनो। हमारी इच्छा तुम्हारे पास पहुँचते ही पूर्ण हो जाती है।
हे अश्विनी कुमारो! तुम अपने स्वर्ग-परिपूर्ण रथ से युक्त इस अनुष्ठान में पधारो और मधुर-मधुर सोमरस का पान करो। हम तपस्वियों को सुन्दर धन प्रदान करो।
मुझ पुरुम़ीढ के तपस्वियों ने अपने श्लोक की शक्ति से तुमको यहाँ पुकारा उस सुन्दर श्लोक के द्वारा हमारे लिए फलवाले बनो।
- ऋषि- वामदेवः–
सूर्य उदित हो रहे हैं। अश्विनी कुमारों का महान रथ सभी और विचरण करता है। वह तेजस्वी रथ सर से जुडा रहता है। इस रथ के ऊपरी तरफ विविध अन्न है तथा सोमरस से भरा चरम (पात्र) चतुर्थ रुप से सुशोभित है।
हे इंन्द्रवायु! स्वर्ग में स्थान बनाने वाले अनुष्ठान में इस अभिषूत सोमरस का पान करो, क्योंकि तुम सबसे पहले सोमरस का पान करने वाले हो। हे वायो! हे इन्द्रदेव! आप दोनों सोमरस के द्वारा तृप्त हो जाओ। हे इंन्द्रवायु! इस अनुष्ठान में तुम्हें सोमपान कराने के लिए घोड़े खोल दिए जायें। आप दोनों इस अनुष्ठान स्थान में जाओ।
हे वायो! रिपुओं को कम्पित करने वाले सम्राट के तुल्य तुम अन्य के द्वारा व पान किए गये सोमरस को पूर्व ही पान करो और प्रार्थना करने वालों के लिए धनों को ग्रहण करवाओ।
हे इन्द्र और बृहस्पते! हवि प्रदान करने वाले यजमान के गृह में निवास करते हुए आप दोनों सोमपान करके बलिष्ठ हो जाओ।
जिसके पास बृहस्पति सर्वप्रथम पधारते हैं, वह सम्राट संतुष्ट होकर अपनी जगह में रहते हैं। जो सम्राट सुरक्षा चाहने वाले धनहीन विद्वान को धन प्रदान करता है, वह रिपुओं के धन का विजेता होता है। देवता सदैव उसके रक्षक होते हैं। हे बृहस्पते! तुम और इन्द्रदेव दोनो ही अनुष्ठान में हर्षित होकर यजमानों को धन दो। यह सोमरस सर्वव्यापक है, यह तुम्हारी देहों में प्रविष्ट है। तुम दोनो ही हमारे लिए संतान से परिपूर्ण रमणिय धन को प्रदान करो हमारे इस अनुष्ठान की तुम दोनों ही सुरक्षा करो। वंदना से चैतन्य को ग्रहण करो।
सप्त ऋषियों से जुडी जानकारी
सात तारों का जो मण्डल है वह सप्तऋषियों के नाम पर है। इन सप्तऋषियों के विषय में अलग- अलग ग्रंथों में मतभेद भी बताए गए हैं।
(1) सबसे पहले ऋषि वशिष्ठ हैं। और ये राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न के गुरु थे।
(2) दूसरे विश्वामित्र, उन्होंने ही गायत्री मंत्र की रचना की है।
(3) तीसरे कण्व ऋषि हैं, इन्होंने ही दुष्यन्त और शकुन्तला पुत्र भरत का पालन पोषण किया था।
(4) चौथे नंम्बर पर के ऋषि भारद्वाज हैं, इनके पिता बृहस्पति और माता ममता थीं।
(5) पाँचवें स्थान पर अत्रि हैं, ये ब्रह्मा के पुत्र और सोम के पिता हैं, और अनुसुया के पति हैं।
(6) छठे नम्बर पर ऋषि वामदेव हैं, ये गौतम ऋषि के पुत्र हैं। और सामदेव की रचना इन्होंनें की है ।
(7) सातवें नम्बर के ऋषि शोनक हैं। इन्होंने 10,000 (दस हजार) विद्यार्थीयों का गुरुकुल स्थापित कर कुलपती होने का गौरव प्राप्त किया । ऐसा इन्होंने पहली बार किया था। इससे पहले ऐसा किसी ने नही किया था।
महत्वपूर्ण जानकारी
स्वयंभू मनु के काल के ऋषियों के नामः-
(1) स्वयंभु मारीच (2) अत्रि (3) अंगिरस (4) पुलह (5) कृत (6) पुलसत्य
(7) वशिष्ठ
राजा मनु सहित उपरोक्त ऋषियों ने ही मानव को सभ्य, सुविधा-संम्पन्न, श्रमसाध्य और सुसंस्कृत बनाने का कार्य किया।
विश्वामित्र और उनका वंश: –
विश्विमित्र: – हालाकिं खुद विश्विमित्र तो कश्यप वंशी थे। इसलिए कोशिक या कुशिक भी इन्हें कहते हैं । कुशिक तो विश्वामित्र के दादा थे। च्यवन के वंशज ऋचिक ने कुशिक पुत्र गाधी की पुत्री से विवाह किया जिससे जमदग्नि पैदा हुए। उनके पुत्र परशुराम हुए।
प्रजापती के पुत्र कुश, कुश के पुत्र कुश्नाभ और कुश्नाभ के पुत्र राजा गाधी थे।
विश्वामित्र उन्हीं गाधी के पुत्र थे। कहते हैं कि कोशिक ऋषि कुरुक्षेत्र के निवासी थे।
वामदेव ऋषि: –
ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के सुत्रद्रष्टा, गौतम ऋषि के पुत्र तथा जन्मत्रयी के तत्वेता हैं। जिन्हें गर्भावस्था में ही अपने विगत दो जन्मों का ज्ञान हो गया था। और उसी गर्भावस्था में इन्द्र के साथ तत्वज्ञान पर चर्चा हुई थी।
प्रश्न: – धरती पर पहली बार अग्नि का उत्पादन: –
धरती पर पहली बार महर्षि भृगु ने ही अग्नि का उत्पादन करना सिखाया था। हालांकि कुछ लोग इसका श्रेय अंगिरा को देते हैं। भृगु ने ही बताया था कि किस तरह अग्नि को प्रज्वलित किया जा सकता है। और किस तरह हम अग्नि का उपभोग कर सकते हैं। इसलिए उन्हें अग्नि से उत्पन्न ऋषि नाम दिया गया। भृगु ने संजीवनी विद्या की खोज की थी अर्थात मृत प्रणियों को जिंदा करने का उपाय उन्होंने ही खोजा था। परम्परागत रुप से यह विद्या उनके पुत्र शुक्राचार्य को प्राप्त हुई। भृगु की संतान होने के कारण ही उनके कुल और वंश के सभी लोगों को भार्गव कहा जाता है। हिंदु सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य भी भृगुवंशी थे।