भक्ति करते समय मन शांत रहना चाहिए और सभी तरह की बुरे विचारों से बचना चाहिए। जो लोग इस बात का ध्यान रखते हैं, उन्हें भगवान की कृपा मिलती है। इस संबंध में एक लोक कथा प्रचलित है।
कथा के अनुसार पुराने समय में दो संत एक साथ रहते थे। दोनों की भक्ति का तरीका अलग-अलग था। एक संत दिनभर तपस्या और मंत्र जाप करते रहता था। जबकि दूसरा संत रोज सुबह-शाम पहले भगवान को भोग लगाता और फिर खुद भोजन करता था।
एक दिन दोनों के बीच झगड़ा होने लगा कि बड़ा संत कौन है? इस दौरान वहां नारद मुनि पहुंच गए। नारद ने दोनों संतों से पूछा कि किस बात के लिए लड़ाई कर रहे हैं? संतों ने बताया कि हम ये तय नहीं कर पा रहे हैं कि दोनों में बड़ा संत कौन है? नारद ने कहा कि ये तो छोटी सी बात है, इसका फैसला मैं कल कर दूंगा।
अगले दिन नारद मुनि ने मंदिर में दोनों संतों की जगह के पास हीरे की एक-एक अंगूठी रख दी। पहले तप करने वाला संत वहां पहुंचा उसने एक अंगूठी देखी और चुपचाप उसे अपने आसन के नीचे छिपाकर मंत्र जाप करने लगा।
कुछ देर में दूसरा संत भगवान को भोग लगाने पहुंचा। उसने भी हीरे अंगूठी देखी, लेकिन उसने अंगूठी की ओर ध्यान नहीं दिया। भगवान को भोग लगाया और खाना खाने लगा। उसने अंगूठी नहीं उठाई, उसके मन में लालच नहीं जागा, क्योंकि उसे भरोसा था कि भगवान रोज उसके लिए खाने की व्यवस्था जरूर करेंगे।
कुछ देर बाद वहां नारदजी आ गए। दोनों संतों ने पूछा कि अब आप बताएं कि हम दोनों में बड़ा संत कौन है? नारद ने तपस्या करने वाले संत को खड़े होने के लिए कहा, जैसे ही वह संत खड़ा हुआ तो उसके आसन के नीचे छिपी हुई अंगूठी दिख गई।
नारद मुनि ने उससे कहा कि तुम दोनों में भोग लगाकर खाना खाने वाला संत बड़ा है। तपस्या करने वाले संत में चोरी करने की बुरी आदत है, उसने भक्ति के समय में भी चोरी करने से संकोच नहीं किया, जबकि भोग लगाने वाले संत ने अंगूठी की ओर ध्यान तक नहीं दिया। इस कारण वही संत बड़ा है।
प्रसंग की सीख
इस प्रसंग की सीख यह है कि भक्ति तभी सफल होती है, जब भक्त के मन में बुरे विचार न हों, भक्त बुरे काम न करता हो। जिस भक्त के विचार पवित्र हैं और जो बुरे कामों से दूर रहता है, सिर्फ उसे ही भगवान की कृपा मिलती है।