महर्षि वेद व्यास

maharshi ved vyas

शास्त्रीय मान्यता के अनुसार महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास (महर्षि वेद व्यास) का जन्म आषाढ़ माह की पूर्णिमा तिथि को हुआ था। वेद व्यास को गुरुओं का गुरु कहा जाता है इसलिए उनके जन्मोत्सव को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाने की परंपरा शुरू हुई। गुरु को साक्षात भगवान ब्रह्मा का रूप माना जाता है। जिस प्रकार से वह जीव का सर्जन करते हैं, ठीक उसी प्रकार से गुरु शिष्य का सर्जन करते हैं। महर्षि वेद व्यास ने महाभारत की रचना की। सभी 18 पुराणों के रचयिता भी महर्षि वेद व्यास को माना जाता है। महर्षि वेद व्यास को ही वेदों को विभाजित करने का श्रेय दिया जाता है। इसी कारण उनका नाम वेदव्यास पड़ा। महर्षि वेदव्यास को आदिगुरु कहा जाता है। इसलिए गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है।

वेद व्यास के जन्म की रहस्यमय कथा

आज हम आपको वेद व्यास के जीवन से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य बताने जा रहे हैं, जो महाभारत के प्रमुख पात्रों के साथ उनके संबंध को भी दर्शाते हैं। साथ ही आपको उनके जन्म की रहस्यमय कथा से भी अवगत करवाएंगे।

प्राचीन काल में सुधन्वा नाम के एक राजा थे। वे एक दिन आखेट के लिये वन गये। उनके जाने के बाद ही उनकी पत्नी रजस्वला हो गई। उसने इस समाचार को अपनी शिकारी पक्षी के माध्यम से राजा के पास भिजवाया। समाचार पाकर महाराज सुधन्वा ने एक दोने में अपना वीर्य निकाल कर पक्षी को दे दिया। पक्षी उस दोने को राजा की पत्नी के पास पहुँचाने आकाश में उड़ चला। मार्ग में उस शिकारी पक्षी को एक दूसरी शिकारी पक्षी मिल गया। दोनों पक्षियों में युद्ध होने लगा। युद्ध के दौरान वह दोना पक्षी के पंजे से छूट कर यमुना में जा गिरा। यमुना में ब्रह्मा के शाप से मछली बनी एक अप्सरा रहती थी। मछली रूपी अप्सरा दोने में बहते हुये वीर्य को निगल गई तथा उसके प्रभाव से वह गर्भवती हो गई। गर्भ पूर्ण होने पर एक निषाद ने उस मछली को अपने जाल में फँसा लिया। निषाद ने जब मछली को चीरा तो उसके पेट से एक बालक तथा एक बालिका निकली। निषाद उन शिशुओं को लेकर महाराज सुधन्वा के पास गया। महाराज सुधन्वा के पुत्र न होने के कारण उन्होंने बालक को अपने पास रख लिया जिसका नाम मत्स्यराज हुआ। बालिका निषाद के पास ही रह गई और उसका नाम मत्स्यगंधा रखा गया क्योंकि उसके अंगों से मछली की गंध निकलती थी। उस कन्या को सत्यवती के नाम से भी जाना जाता है।

विश्व के पहले पुराण, विष्णु पुराण की रचना करने वाले महर्षि पराशर एक बार यमुना नदी के किनारे भ्रमण के लिए निकले। भ्रमण करते हुए उनकी नजर एक सुंदर स्त्री सत्यवती पर पड़ी। मछुआरे की पुत्री सत्यवती, दिखने में तो बेहद आकर्षक थी लेकिन उसकी देह से हमेशा मछली की गंध आती थी, जिसकी वजह से सत्यवती को मत्स्यगंधा भी कहा जाता था।

महर्षि पराशर, सत्यवती के प्रति आकर्षित हुए बिना रह नहीं पाए। उन्होंने सत्यवती से उन्होंने नदी पार करवाने की गुजारिश की। सत्यवती ने उन्हें अपनी नाव में बैठने के लिए आमंत्रित किया।
नाव में बैठने के बाद पराशर ऋषि ने सत्यवती के सामने प्रणय निवेदन किया, जिसे सत्यवती ने सशर्त स्वीकार किया। पराशर ऋषि, सत्यवती के साथ संभोग करना चाहते थे, जिसकी स्वीकृति देने से पहले सत्यवती ने उनके सामने अपनी तीन शर्तें रखीं।

सत्यवती की पहली शर्त थी कि उन्हें संभोग करते हुए कोई भी जीव ना देख पाए। पराशर ने इस शर्त को स्वीकार करते हुए अपनी दैवीय शक्ति से एक द्वीप का निर्माण किया जहां घना कोहरा था। इस कोहरे के भीतर कोई भी उन्हें नहीं देख सकता था।

सत्यवती की दूसरी शर्त थी कि उसके शरीर से आने वाली मछली की महक के स्थान पर फूलों की सुगंध आए। पराशर ने ‘तथास्तु’ कहकर यह शर्त भी स्वीकार कर ली और सत्यवती के शरीर में से आने वाली मछली की गंध समाप्त हो गई। इसके विपरीत उसकी देह फूलों की तरह महकने लगी।
सत्यवती की दूसरी शर्त थी कि उसके शरीर से आने वाली मछली की महक के स्थान पर फूलों की सुगंध आए। पराशर ने ‘तथास्तु’ कहकर यह शर्त भी स्वीकार कर ली और सत्यवती के शरीर में से आने वाली मछली की गंध समाप्त हो गई। इसके विपरीत उसकी देह फूलों की तरह महकने लगी।
सत्यवती और ऋषि पराशर ने कोहरे से भरे द्वीप पर संभोग किया। समय आने पर सत्यवती ने एक पुत्र को जन्म दिया, जो जन्म के साथ ही महाज्ञानी था। सत्यवती और पराशर की संतान का रंग काला था, जिसकी वजह से उसका नाम कृष्ण रखा गया। यही कृष्ण आगे चलकर वेद व्यास के नाम से प्रसिद्ध हुए।
कृष्ण जब बड़े हुए तब उन्होंने अपनी मां से कहा कि जब भी वह किसी विपत्ति की समय उन्हें याद करेंगी, वह उपस्थित हो जाएंगे। इतना कहकर वे तप करने के लिए द्वैपायन द्वीप की ओर प्रस्थान कर गए।
मनुस्मृति में ‘नियोग’ की प्रथा को उल्लिखित किया गया है। जिसके अंतर्गत अगर पुरुष संतानोत्पत्ति करने में सक्षम नहीं है या उसकी अकाल मृत्यु हो जाती है तो ऐसे हालातों में स्त्री नियोग के द्वारा किसी अन्य पुरुष के द्वारा गर्भ धारण कर सकती है।
सत्यवती और शांतनु के दोनों पुत्रों की मृत्यु के पश्चात सत्यवती को यह भय सताने लगा कि ऐसे तो वंश समाप्त हो जाएगा। सत्यवती ने पहले भीष्म से आग्रह किया कि वह विचित्रवीर्य की रानियों के साथ नियोग कर संतान उत्पत्ति का मार्ग खोलें, लेकिन भीष्म की प्रतिज्ञा ने उन्हें अपनी माता की आज्ञा का पालन नहीं करने दिया।
सत्यवती अत्यंत निराश और दुखी हो गई। ऐसे में उन्हें अपने पुत्र वेद व्यास की याद आई। वेद व्यास ने उनसे कहा था कि वह किसी भी विपत्ति में उनका साथ देंगे। अपनी मां के कहने पर वेद व्यास ने विचित्रवीर्य की रानियों के साथ नियोग किया, जिसके बाद पांडु और धृतराष्ट्र का जन्म हुआ।
वेद व्यास ने विचित्रवीर्य की रानियों, अंबिका और अंबालिका के अलावा एक दासी के साथ भी नियोग की प्रथा का पालन किया, जिसके बाद विदुर का जन्म हुआ। तीनों पुत्रों में से विदुर वेद-वेदान्त में पारंगत और नीतिवान पुत्र थे।
द्वैपायन द्वीप पर जाकर तपस्या करने और काले रंग की वजह से उन्हें कृष्ण द्वैपायन नाम दिया गया, जो आगे चल कर वेदों का भाष्य करने के कारण वेद व्यास के नाम से प्रसिद्ध हुए।

वेदों का विस्तार करने के कारण ये वेदव्यास तथा बदरीवन में निवास करने के कारण बादरायण के नाम से भी जाने जाते हैं। वेद व्यास ने चारो वेदों के विस्तार के साथ-साथ अठारह महापुराणों तथा ब्रह्मसूत्र का भी प्रणयन किया। हिन्दू पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु ने ही व्यास के रूप में अवतार लेकर वेदों का विस्तार किया था।

वेद व्यास के विद्वान शिष्य

पैल
जैमिन
वैशम्पायन
सुमन्तुमुनि
रोम हर्षण

वेद व्यास का योगदान

महर्षि व्यास त्रिकालज्ञ थे तथा उन्होंने दिव्य दृष्टि से देख कर जान लिया कि कलियुग में धर्म क्षीण हो जायेगा। धर्म के क्षीण होने के कारण मनुष्य नास्तिक, कर्तव्यहीन और अल्पायु हो जावेंगे। एक विशाल वेद का सांगोपांग अध्ययन उनके सामर्थ से बाहर हो जायेगा। इसीलिये महर्षि व्यास ने वेद का चार भागों में विभाजन कर दिया जिससे कि कम बुद्धि एवं कम स्मरणशक्ति रखने वाले भी वेदों का अध्ययन कर सकें। व्यास जी ने उनका नाम रखा – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेदों का विभाजन करने के कारण ही व्यास जी वेद व्यास के नाम से विख्यात हुये। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को क्रमशः अपने शिष्य पैल, जैमिन, वैशम्पायन और सुमन्तुमुनि को पढ़ाया। वेद में निहित ज्ञान के अत्यन्त गूढ़ तथा शुष्क होने के कारण वेद व्यास ने पाँचवे वेद के रूप में पुराणों की रचना की जिनमें वेद के ज्ञान को रोचक कथाओं के रूप में बताया गया है।। पुराणों को उन्होंने अपने शिष्य रोम हर्षण को पढ़ाया। व्यास जी के शिष्योंने अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार उन वेदों की अनेक शाखाएँ और उप शाखाएँ बना दीं।

और व्यास जी ने महाभारत की रचना की। श्री वेद्व्यस जी अभि भी बदरिकाश्रम मे उपस्थित् है और् उन्के अनेक् शिष्यॊ को वे अभि भी पाठ् पढा रहें है ।

पौराणिक-महाकाव्य युग की महान विभूति, महाभारत, अट्ठारह पुराण, श्रीमद्भागवत, ब्रह्मसूत्र, मीमांसा जैसे अद्वितीय साहित्य-दर्शन के प्रणेता वेदव्यास का जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को लगभग ३००० ई. पूर्व में हुआ था। वेदांत दर्शन, अद्वैतवाद के संस्थापक वेदव्यास ऋषि पराशर के पुत्र थे। पत्नी आरुणी से उत्पन्न इनके पुत्र थे महान बाल योगी शुकदेव। श्रीमद्भागवत गीता विश्व के सबसे बड़े महाकाव्य ‘महाभारत’ का ही अंश है। रामनगर के किले में और व्यास नगर में वेदव्यास का मंदिर है जहॉ माघ में प्रत्येक सोमवार मेला लगता है। गुरु पूर्णिमा का प्रसिद्ध पर्व व्यास जी की जयन्ती के उपलक्ष्य में मनाया जाता है।

पुराणों तथा महाभारत के रचयिता महर्षि का मन्दिर व्यासपुरी में विद्यमान है जो काशी से पाँच मील की दूरी पर स्थित है। महाराज काशी नरेश के रामनगर दुर्ग में भी पश्चिम भाग में व्यासेश्वर की मूर्ति विराजमान् है जिसे साधारण जनता छोटा वेदव्यास के नाम से जानती है। वास्तव में वेदव्यास की यह सब से प्राचीन मूर्ति है। व्यासजी द्वारा काशी को शाप देने के कारण विश्वेश्वर ने व्यासजी को काशी से निष्कासित कर दिया था। तब व्यासजी लोलार्क मंदिर के आग्नेय कोण में गंगाजी के पूर्वी तट पर स्थित हुए।

इस घटना का उल्लेख काशी खंड में इस प्रकार है-

लोलार्कादं अग्निदिग्भागे, स्वर्घुनी पूर्वरोधसि। स्थितो ह्यद्य्यापि पश्चेत्स: काशीप्रासाद राजिकाम् ।। स्कंद पुराण, काशी खंड ९६/२०१

व्यासजी ने पुराणों तथा महाभारत की रचना करने के पश्चात् ब्रह्मसूत्रों की रचना भी यहाँ की थी। वाल्मीकि की ही तरह व्यास भी संस्कृत कवियों के लिये उपजीव्य हैं। महाभारत में उपाख्यानों का अनुसरण कर अनेक संस्कृत कवियों ने काव्य, नाटक आदि की सृष्टि की है। महाभारत के संबंध में स्वयं व्यासजी की ही उक्ति अधिक सटीक है- इस ग्रंथ में जो कुछ है, वह अन्यत्र है, पंरतु जो इसमें नहीं है, वह अन्यत्र कहीं भी नहीं है।

यमुना के किसी द्वीप में इनका जन्म हुआ था। व्यासजी कृष्ण द्वैपायन कहलाये क्योंकि उनका रंग श्याम था। वे पैदा होते ही माँ की आज्ञा से तपस्या करने चले गये थे और कह गये थे कि जब भी तुम स्मरण करोगी, मैं आ जाऊंगा। वे धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर के जन्मदाता ही नहीं, अपितु विपत्ति के समय वे छाया की तरह पाण्डवों का साथ भी देते थे। उन्होंने तीन वर्षों के अथक परिश्रम से महाभारत ग्रंथ की रचना की थी-

त्रिभिर्वर्षे: सदोत्थायी कृष्णद्वैपायनोमुनि:। महाभारतमाख्यानं कृतवादि मुदतमम् ।। आदिपर्व – (५६/५२)

जब इन्होंने धर्म का ह्रास होते देखा तो इन्होंने वेद का व्यास अर्थात विभाग कर दिया और वेदव्यास कहलाये। वेदों का विभाग कर उन्होंने अपने शिष्य सुमन्तु, जैमिनी, पैल और वैशम्पायन तथा पुत्र शुकदेव को उनका अध्ययन कराया तथा महाभारत का उपदेश दिया। आपकी इस अलौकिक प्रतिभा के कारण आपको भगवान् का अवतार माना जाता है।

संस्कृत साहित्य में वाल्मीकि के बाद व्यास ही सर्वश्रेष्ठ कवि हुए हैं। इनके लिखे काव्य ‘आर्ष काव्य’ के नाम से विख्यात हैं। व्यास जी का उद्देश्य महाभारत लिख कर युद्ध का वर्णन करना नहीं, बल्कि इस भौतिक जीवन की नि:सारता को दिखाना है। उनका कथन है कि भले ही कोई पुरुष वेदांग तथा उपनिषदों को जान ले, लेकिन वह कभी विचक्षण नहीं हो सकता क्योंकि यह महाभारत एक ही साथ अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र तथा कामशास्त्र है।

१. यो विध्याच्चतुरो वेदान् साङ्गोपनिषदो द्विज:। न चाख्यातमिदं विद्य्यानैव स स्यादिचक्षण:।। २. अर्थशास्त्रमिदं प्रोक्तं धर्मशास्त्रमिदं महत् । कामाशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेना मितु बुद्धिना।। महा. आदि अ. २: २८-८३

महर्षि वेदव्यासजी ने 18 पुराणों की रचना की, जो इस प्रकार हैं:

1. ब्रह्मा पुराण ।

2. पद्मा पुराण ।

3. विष्णु पुराण ।

4. शिव पुराण ।

5. श्रीमदभागवत पुराण ।

6. नारद पुराण ।

7. अग्नि पुराण ।

8. ब्रह्म वैवर्त्त पुराण ।

9. वराह पुराण ।

10. स्कन्द पुराण ।

11. मार्कण्डेय पुरण ।

12. वामन पुराण ।

13. कूर्म पुराण ।

14. मत्स्य पुराण ।

15. गरूड़ पुराण ।

16.ब्रहमण्ड पुराण ।

17. लिंग पुराण ।

18. भविष्य पुराण ।

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