भगवान शिव के 108 नाम
श्रीरामचरितमानस में यह कथा आयी है कि देवर्षि नारद जी को कामपर विजय प्राप्त करने से गर्व हो गया था तथा वह स्वयं को काम और क्रोध दोनों से ऊपर उठा हुआ समझने लगे थे पर मूल बात यह थी कि जहाँपर नारदजी ने तपस्या की थी , शंकरजी ने उस तपःस्थली को काम प्रभाव से शून्य होने का वर दे दिया था। काम पर विजय – प्राप्ति का प्रसंग जब नारद जी ने शिवजी को सुनाया ,तब भगवान शंकर ने उन्हें इस बात को विष्णुभगवान से कहने से रोका पर अपनी विजय-प्राप्ति के गर्व में नारदजी को शिवजी के वचन उचित नहीं लगे । नारद जी ने भगवान शंकर के वचन अपने लिए अनुचित समझकर भगवान विष्णु को भी सारा प्रसंग सुना दिया । नारद जी के मन में गर्व का भारी अंकुर उत्पन्न हो गया है , यह देखकर भगवान विष्णु ने उसे नष्ट करने का सोचा ।
अतः भगवान विष्णु ने नारद जी के कल्याण के लिये अपनी माया को रचा । उन्होंने अपनी माया द्वारा सौ योजन के एक नगर का निर्माण किया । उस नगर के राजा शीलनिधि की एक पुत्री थी जिसका नाम विश्वमोहिनी था । उस राजकुमारी के स्वयंवर हेतु अगणित राजा वहाँ आये हुए थे । उसकी परम सुंदरता से नारदजी भी आकर्षित हो गए थे तथा उन्होंने उस कन्या से विवाह करने का निर्णय ले लिया था । उस राजकन्या से विवाह करने हेतु नारदजी ने भगवान विष्णु से प्रार्थना कर अपने लिये सहायता मांगी एवं भगवान की माया के वशीभूत होने से वह कुछ समझ न सके । देवर्षि नारदजी तुरंत वहाँ गए जहां स्वयंवर का आयोजन हो रहा था पर साक्षात् भगवान विष्णु ने वहाँ आकर विश्वमोहिनी से विवाह कर लिया । यह सब देखकर नारदजी को बड़ा क्रोध आया । काम के वश में तो वे पहले ही हो चुके थे । क्रुद्ध होकर नारदजी ने भगवान विष्णु को अनेक अपशब्द कहे और स्त्री-वियोग में दुःखी होने का शाप भी दे दिया । तब भगवान ने अपनी माया दूर कर दी और विश्वमोहिनी के साथ लक्ष्मी जी भी लुप्त हो गयीं ।
यह सब देखकर नारद जी की बुद्धि भी शांत और शुद्ध हो गई ।उन्हें सारी बीती बातें ध्यान में आ गयीं । तब मुनि अत्यंत भयभीत होकर भगवान विष्णु के चरणों में गिर पड़े और प्रार्थना करने लगे कि- भगवन ! मेरा शाप मिथ्या हो जाये और मेरे पापों कि अब सीमा नहीं रही , क्योंकि मेने आपको अनेक दुर्वचन कहे ।
इस पर भगवान विष्णु ने कहा कि –
जपहु जाइ संकर सत नामा । होइहि हृदयँ तुरत विश्रामाँ ।।
कोउ नहीं सिव समान प्रिय मोरें । असि परतीति तजहु जनि भोरें ।।
जेहि पर कृपा न करहि पुरारी । सो न पाव मुनि भगति हमारी ।।
आप जाकर शिवजी के शिवशतनाम का जप कीजिये , इससे आपके हृदय में तुरंत शांति होगी । इससे आपके दोष-पाप मिट जायँगे और पूर्ण ज्ञान-वैराग्य तथा भक्ति-की राशि सदा के लिए आपके हृदय में स्थित हो जायगी । शिवजी मेरे सर्वाधिक प्रिय हैं , यह विश्वास भूलकर भी न छोड़ना । वे जिस पर कृपा नहीं करते उसे मेरी भक्ति प्राप्त नहीं होती ।
यह प्रसंग मानस तथा शिवपुराण के रूद्रसंहिता के सृष्टि – खंड में प्रायः यथावत आया है । इस पर प्रायः लोग शंका करते हैं अथवा अधिकतर लोगों को पता नहीं होता है कि वह शिवशतनाम कौनसा है, जिसका नारद जी ने जप किया ,जिससे उन्हें परम कल्याणमयी शांति की प्राप्ति हुई ?
यहां सभी लोगों के लाभ हेतु वह शिवशतनाम मूल रूप में दिया जा रहा है । इस शिवशतनाम का उपदेश साक्षात् नारायण ने पार्वतीजी को भी दिया था , जिससे उन्हें भगवान शंकर पतिरूपमें प्राप्त हुए थे और वह उनकी साक्षात् अर्धांगनी बन गयीं ।
शिव शतनाम**
- ॐ शिवाय नमः। 2. ॐ महेश्वराय नमः। 3. ॐ शम्भवे नमः।
- ॐ पिनाकिने नमः। 5. ॐ शशिशेखराय नमः। 6. ॐ वामदेवाय नमः।
- ॐ विरूपाक्षाय नमः। 8. ॐ कपर्दिने नमः। 9. ॐ नीललोहिताय नमः।
- ॐ शंकराय नमः। 11. ॐ शूलपाणये नमः। 12. ॐ खट्वाग्धारिने नमः।
- ॐ विष्णुवल्लभाय नमः। 14. ॐ शिपिविष्टाय नमः। 15. ॐ अंबिकानाथाय नमः।
- ॐ श्रीकण्ठाय नमः। 17. ॐ भक्तवत्सलाय नमः। 18. ॐ भवाय नमः।
- ॐ शर्वाय नमः। 20. ॐ त्रिलोकेशाय नमः। 21. ॐ शितिकण्ठाय नमः।
- ॐ शिवाप्रियाय नमः। 23. ॐ उग्राय नमः। 24. ॐ कपालिने नमः।
- ॐ कामारये नमः 26. ॐ अन्धकासुरसूदनाय नमः। 27. ॐ गंगाधराय नमः।
- ॐ ललाटाक्षाय नमः। 29. ॐ कालकालाय नमः। 30. ॐ कृपानिधये नमः।
- ॐ भीमाय नमः। 32. ॐ परशुहस्ताय नमः। 33. ॐ मृगपाणये नमः।
- ॐ जटाधराय नमः। 35. ॐ कैलाशवासिने नमः। 36. ॐ कवचये नमः।
- ॐ कठोराय नमः। 38. ॐ त्रिपुरान्तकाय नमः। 39. ॐ वृषणगकाये नमः।
- ॐ वृषभारूढाय नमः। 41. ॐ भस्मोद्धूलितविग्रहाय नमः। 42. ॐ सामप्रियाय नमः।
- ॐ स्वरमयाय नमः। 44. ॐ त्रयीमूर्तये नमः। 45. ॐ अनीश्वराय नमः।
- ॐ सर्वज्ञाय नमः। 47. ॐ परमात्मने नमः। 48. ॐ सोमसूर्याग्निलोचनाय नमः।
- ॐ हर्वियज्ञमयाय नमः| 50. ॐ सोमाय नमः। 51. ॐ पंचवक्त्राय नमः।
- ॐ सदाशिवाय नमः। 53. ॐ विश्वेश्वराय नमः। 54. ॐ वीरभद्राय नमः।
- ॐ गणनाथाय नमः। 56. ॐ प्रजापतये नमः। 57. ॐ हिरण्यरेतसे नमः।
- ॐ दुर्धर्षाय नमः। 59. ॐ गिरीशाय नमः। 60. ॐ गिरिशाय नमः।
- ॐ अनघाय नमः। 62. ॐ भुजंगभूषणाय नमः। 63. ॐ भर्गाय नमः।
- ॐ गिरिधन्वने नमः। 65. ॐ गिरिप्रियाय नमः। 66. ॐ कृत्तिवासाय नमः।
- ॐ पुराराये नमः। 68. ॐ भगवते नमः। 69. ॐ प्रमथाधिपाय नमः।
- ॐ मृत्युंजयाय नमः। 71. ॐ सूक्ष्मतनवे नमः। 72. ॐ जगद्व्यापिने नमः।
- ॐ जगद्गुरुवे नमः। 74. ॐ व्योमकेशाय नमः। 75. ॐ महासेनाय नमः
- ॐ जनकाय नमः। 77. ॐ चारुविक्रमाय नमः। 78. ॐ रुद्राय नमः। 79. ॐ भूतपतये नमः। 80. ॐ स्थाणवे नमः। 81. ॐ अहिर्बुध्न्याय नमः।
- ॐ दिगंबराय नमः। 83. ॐ अष्टमूर्तये नमः। 84. ॐ अनेकात्मने नमः।
- ॐ सात्विकाय नमः। 86. ॐ शुद्धविग्रहाय नमः। 87. ॐ शाश्वताय नमः।
- ॐ खंडाये नमः। 89. ॐ परशुरजसे नमः। 90. ॐ पाशविमोचकाय नमः।
- ॐ मृडाय नमः। 92. ॐ पशुपतये नमः। 93. ॐ अव्ययाय नमः।
- ॐ महादेवाय नमः। 95. ॐ देवाय नमः। 96. ॐ प्रभवे नमः।
97 ॐ पूषदन्तविदारने नमः। 98. ॐ व्यग्राय नमः 99. ॐ दक्षाध्वरहराय नमः।
- ॐ हराय नमः। 101. ॐ भगनेत्रभिदे नमः। 102. ॐ अव्यक्ताय नमः।
- ॐ सहस्राक्षाय नमः। 104. ॐ सहस्रपातये नमः। 105. ॐ अपवर्गप्रदाय नमः।
- ॐ अनन्ताय नमः। 107. ॐ तारकाय नमः। 108. ॐ परमेश्वराय नमः।