🚩☀️राम: एक ऐतिहासिक विवरण ! राम कौन थे?☀️🚩
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(राम एक इतिहास )
राम के जीवन को सदियों से भारतीय ही नहीं , अपितु माया आदि अन्य देशों की संस्कृति में भी आदर्श और पवित्र माना जाता हैं | राम शब्द हमारे अभिवादन के रूप मे समाचरित हो चुका है ।
भारतीय परम्पराओं में जीवन यात्रा का अन्तिम विदाई शब्द राम राम शब्दावृत्ति के रूप में रूढ़ हो गया है ।
राम उस निराकार ब्रह्म का भी वाचक शब्द है ;जो सर्वत्र व्याप्त है।. (रमते इति । रम् + अण् । रम्यतेऽनेन सम्पूर्णेषु चराचरेषु ।
(रम् + घञ् वा ) १:- मनोज्ञः (यथा बृहत्संहितायाम् । १९ / ५ “ गावः प्रभूतपयसो नयनाभिरामा रामा रतैरविरतं रमयन्ति रामान् “ ) सितः ,असितः इति मेदिनी कोश २७ ॥
(रम–कर्त्तरि घञ् अण् वा ):—अर्थात् रम् धातु में कर्ता के अर्थ में अण् अथवा घञ् प्रत्यय करने पर राम: शब्द बनता है ।
संस्कृत साहित्य में राम शब्द इन मानवों के नामीय रूप में रूढ़ है :—जो पौराणिक कथाओं में प्रसिद्ध रहे हैं ।
देखें—
१ परशुरामे २ दशरथ- ज्येष्ठपुत्रे श्रीरामे ३ बलरामे च “भार्गवो राघवो गोपस्त्रयो रामाः पकीर्त्तिता”
अग्नि सर्वत्र व्याप्त है अत: राम शब्द अग्नि का भी वाचक है ।
वह्नि:— पु० रामशब्द- निरुक्तिः “रापब्दा विश्ववचनो मश्चापीश्वरवाचकः “विश्वानाधीश्वरो यो हि तेन रामः प्रकोर्त्तित” ब्रह्मवैवर्त जन्म खण्ड ११० अध्याय
४ मनोहरे ५ सिते ६ असिते च त्रि० मेदिनी कोश ।
मेदिनी संस्कृत भाषा के कोश में
राम का अर्थ १- सुन्दर २- श्वेत ३- अश्वेत अर्थ भी है । ७ वास्तूकशाके ८ कुष्ठे (कुड़) न० मेदिनी कोश
तमालपत्रे न० ।
रम् :– क्रीडायाम् आत्मने पदीय व परस्मैपदीय दौनों क्रिया रूप
अनुदात्तोऽनुदात्तेत् ( रमते रेमे रेमिषे रेमिध्वे ) क्रादिनियमादिट् ( रन्ता रंस्यते रमताम् अरमत रमेत रंसीष्ट अरंस्त रिरंसते रंरम्यते रंरन्ति ररंतः )
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राम के चरित्र और नाम रूप की इतनी अर्थ व्यापकता होने पर भी –
कुछ विधर्मी और नास्तिकों द्वारा श्री राम पर शम्बूक नामक एक शुद्र का हत्यारा होने का आक्षेप लगाया जाता हैं।
वाल्मीकि-रामायण में यह उत्तर- काण्ड का प्रकरण
पुष्य-मित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मणों ने शूद्रों को लक्ष्य करके यह मनगढ़न्त रूप से राम-कथा से सम्बद्ध कर दिया —
ताकि लोक में इसे सत्य माना जाय !
इतनी ही नहीं वाल्मीकि-रामायण के अयोध्या काण्ड १०९ वें सर्ग ३४ वें श्लोक में जावालि ऋषि के साथ सम्वाद रूप में राम के मुख से बुद्ध को चौर तथा नास्तिक कहलवाया गया देखें—
वाल्मीकि-रामायण अयोध्या काण्ड १०९ वें सर्ग का ३४ वाँ श्लोक–
यथा ही चौर स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि –
परन्तु राम एक ऐतिहासिक चरित्र हैं |
संसार में अब तक ३०० रामायण की कथाएें लिखी जा चुकी हैं ।
वेदों में राम का वर्णन है ।
वेद में श्रीरामोपासना की प्राचीनता बतायी गयी है। ऋग्वेद के १०४१७ मन्त्रों से १५५ मन्त्रों, एक मन्त्र वाजसनेयी संहिता से तथा एक अन्यत्र संहिता से लेकर, नीलकण्ठ-सूरि ने ’मन्त्ररामायण’ नामक एक प्रख्यात रचना की थी ।
जिस पर’मन्त्ररहस्य-प्रकाशिका’ नामक स्वोपज्ञ व्याख्या भी की थी। इससे प्रमाणित होता है कि सृष्टि के प्राचीन काल से ही श्रीरामोपासना सतत चली आ रही है। अब इस रामोपासना की अविच्छिन्नता पर विचार करते हैं। उपनिषदों में भी श्रीराम-मन्त्र का वर्णन आया है।
श्रीरामतापिनी उपनिषद की चतुर्थ कण्डिका-
“श्रीरामस्यमनुंकाश्यांजजापवृषभध्वजः। मन्वन्तरसहस्रैस्तुजपहोमार्चनादिभिः॥
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के तृतीय सूक्त के तृतीय ऋचा में राम कथा का विवरण है :—
भद्रो भद्रया सचमान आगात्स्वसारं जारो अभ्येति पश्चात्।
सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन्रुशद्भिर्वर्णैरभि राममस्थात्॥
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(ऋग्वेद १०।३।३)
भावार्थ: श्री रामभद्र (भद्र) सीता जी के साथ (भद्रया) [ वनवास के लिए ] तैयार होकर (सचमान ) दण्डकारण्य वन (स्वसारं) यहाँ पत्नी अर्थ में )जब आये थे (आगात्) , तब (पश्चात ) कपट वेष में कामुक (जारो) रावण सीता जी का हरण करने के लिए आया था (अभ्येति ), उस समय अग्नि देव हीं सीता जी के साथ थे ( अर्थात स्वयं सीता माँ अग्नि में स्थित हो चुकी थी राम जी के कहे अनुसार), अब रावण वध के पश्चात, देदीप्यमान तथा लोहितादी वर्णों वाली ज्वालाओं से युक्त स्वयं अग्नि देव हीं (सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन्रुशद्भिर्वर्णैरभि) हीं शुभ-लक्षणों से युक्त कान्तिमयी सीता जी के साथ [सीता जी का निर्दोषत्व सिद्ध करने के लिए] श्री राम के सम्मुख उपस्थित हुए (राममस्थात्) |
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काशी में श्रीराममन्त्र को शिवजी ने जपा, तब भगवान् श्रीरामचन्द्र प्रसन्न होकर बोले:-
“वेत्तोवाब्रह्मणोवापियेलभन्तेषडक्षरम्।जीवन्तोमन्त्रसिद्धाःस्युर्मुक्तामांप्राप्नुवन्तिते॥
-रा. ता. उ. ।४।७॥“
अर्थात्- हे शिवजी! आप से या ब्रह्मा से जो कोई षडक्षर-मन्त्र को लेंगे, वे मेरे धाम को प्राप्त होंगे। पुराणों,पाञ्चरात्रादि ग्रन्थों में भी रामोपासना का विधिवत् वर्णन पाया जाता है। अगस्त्यसंहिता, जो रामोपासना का प्राचीनतम आगम ग्रन्थ है, के १९ वें अध्याय तथा २५ वें अध्याय में भी रामोपासना का वर्णन पाया जाता है। बृहद्ब्रह्मसंहिता के द्वितीय पाद अध्याय ७, पद्म पुराण उत्तर खण्ड अध्याय २३५ तथा बृहन्नारदीयपुराण पूर्व भाग के अध्याय ३७ से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रीरामोपासना तीनों युगों में होती आयी है। इस तथ्य से सम्बन्धित कुछ वाक्यों का अब हम सिंहावलोकन करते हैं। महारामायण (और ऐसे और भी ग्रन्थों में) तो स्पष्टतः- श्रीरामजी ही स्वयं भगवान् हैं ऐसा कहा है:-
“भरणःपोषणाधारःशरण्यःसर्वव्यापकः।करुणःषड्गुणैःपूर्णोरामस्तुभगवान्स्वयं॥
-(महारामायण)”
इसी सन्दर्भ में याज्ञवल्क्य संहिता की यह पंक्ति भी उल्लेखनीय है:-
पूर्णःपूर्णावतारश्चश्यामोरामोरघूत्तमः।अंशानृसिंहकृष्णाद्याराघवोभगवान्स्वयं॥
-(याज्ञवल्क्यसं., ब्रह्मसंहिता)
पुराणों में तिलक स्वरूप श्रीमद्भागवतम् में इस से सम्बद्ध कुछेक प्रसङ्ग देखें:-
किम्पुरुषे वर्षे भगवन्तमादिपुरुषं लक्ष्मणाग्रजं सीताभिरामं रामं तच्चरणसन्निकर्षाभिरतः परमभागवतो हनुमान् सह किम्पुरुषैरविरतभक्तिरुपास्ते ॥
-(श्रीमद्भा. ५।१९।१॥)
(अर्थात्, किम्पुरुष वर्ष में श्रीलक्ष्मणजी के बड़े भाई आदिपुरुष, सीताहृदयाभिराम भगवान् श्री रामजी के चरणों की सन्निधि के रसिक परम भागवत हनुमान् जी अन्य किन्नरों के साथ अविचल भक्तिभाव से उनकी उपासना करते हैं।) आगे श्री शुकाचार्यमहाराज श्रीरामजी को परब्रह्म तथा सबसे परे मानते हुए छः बार ’नमः’ शब्द (षडैश्वर्य युक्त सूचित करते हुए) एवं नौ विशेषणों का प्रयोग करके यह सिद्ध किया है कि भगवान् श्री राम पूर्ण ब्रह्म हैं:-
ॐ नमो भगवते उत्तमश्लोकाय नम आर्यलक्षणशीलव्रताय नम उपशिक्षितात्मन उपासितलोकाय नमः साधुवादनिकषणाय नमो ब्रह्मण्यदेवाय महापुरुषाय महाराजाय नम इति ॥
-(श्रीमद्भा. ०५.१९.००३ ॥)
और आगे तो कह ही दिया –
“सीतापतिर्जयतिलोकमलघ्नकीर्तिः (श्रीमद्भा. ११।४।२१)” ।
इतना ही नहीं। योगीश्वर करभाजन राजा निमि को यह बताते हैं कि कलियुग में भगवान् की स्तुति इस प्रकार करते हैं-
ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोहं तीर्थास्पदं शिवविरिञ्चिनुतं शरण्यम् । भृत्यार्तिहं प्रणतपाल भवाब्धिपोतं वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥
– (श्रीमद्भा. ११.०५.०३३ ॥)
त्यक्त्वा सुदुस्त्यजसुरेप्सितराज्यलक्ष्मीं धर्मिष्ठ आर्यवचसा यदगादरण्यम् । मायामृगं दयितयेप्सितमन्वधावद् वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम्
– (श्रीमद्भा. ११.०५.०३४ ॥)
(अर्थात्, प्रभो आप शरणागत रक्षक हैं।
आपके चरणारविन्द सदा-सर्वदा ध्यान-करने योग्य, माया-मोहादि से उत्पन्न सांसारिक पराजयों को समाप्त करने वाले, तथा भक्तों को समस्त अभीष्ट प्रदान करने वाले कामधेनु स्वरूप हैं। वे तीर्थों को भी तीर्थ बनाने वाले स्वयं तीर्थ स्वरूप हैं; शिव, ब्रह्मा आदि देवता उन्हें नमस्कार करते हैं। सेवकों की समस्त आर्ति और विपत्ति के नाशक तथा संसार-सागर से पार जाने के लिए जहाज हैं। महापुरुष! मैं आपके चरणों की वन्दना करता हूँ। भगवन्! पिताजी के वचनों से देवताओं द्वारा वाञ्छनीय और दुस्त्यज राज्यलक्ष्मी को छोड़कर आपके चरण कमलवन-वन घूमते रहे। आप धर्मनिष्ठता की सीमा हैं। हे महापुरुष! अपनी प्रेयसी के चाहने पर जान-बूझकर मायामृग के पीछे दौड़्ते रहे।प्रभो! मैं आपकी उन्हीं चरणों की वन्दना करता हूँ।) ध्यातव्य है कि यह ध्यान किसी और का नहीं वरन् अशरण-शरण सीता पति भगवान् राम का है। अर्थात् भागवतकार का स्पष्ट निर्देश है कि कलियुग में तो केवल भगवान् श्री राम की ही स्तुति वाञ्छनीय है। पद्मपुराण में पार्वतीजी शिवजी से यह प्रश्न विष्णोःसहस्रनामैतत्प्रत्यहंवृषभध्वज ।नाम्नैकेनतुयेनस्यात्तत्फलंब्रूहिमेप्रभो ॥
– (पद्मपु. उत्तरखण्ड ७१।३३०)
तो महादेवजी का उत्तर है-
रामरामेतिरामेतिरमेरामेमनोरमे ।सहस्रनामतत्तुल्यंरामनामवरानने ॥
– (पद्मपु. उत्तरखण्ड ७१।३३१, २५४।२२)
स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों? तो इसका भी उत्तर पद्म-पुराण में ही है-
विष्णोरेकैकनामैवसर्ववेदाधिकंमतम् ।तादृङ्नामसहस्राणिरामनामसमानिच ॥ यत्फलंसर्ववेदानांमंत्राणांजपतःप्रिये ।तत्फलंकोटिगुणितंरामनाम्नैवलभ्यते ॥
– (पद्मपु. उत्तरखण्ड२५४।२७-२८)
अर्थात्, श्रीविष्णुभगवान् के एक-एक नाम भी सम्पूर्ण वेदों से अधिक माहात्म्यशाली माना गया है।ऐसे एक सहस्रनामों के तुल्य रामनाम के समान है। हे प्रिये (पार्वती)! समस्त वेदों और सम्पूर्ण मन्त्रों के जप का जो फल प्राप्त होता है, उसके अपेक्षा कोटि गुणित फल रामनाम से ही प्राप्त हो जाता है। नारद पुराण तो यहाँ तक कहता है किसी भी मन्त्रों (गाणपत्य, सौर, शाक्त, शैव एवं वैष्णव) में वैष्णव मन्त्र श्रेष्ठ है। और वैष्णव-मन्त्रों से भी राम-मन्त्र का फल अधिक है। तथा गाणपत्यादि मन्त्रों से तो कोटि-कोटि गुणा अधिक है। और सभी राममन्त्रों से भी श्रेष्ठ है षडक्षरराम-मन्त्र :-
“अथ रामस्य मनवो वक्ष्यन्ते सिद्धिदायकाः। येषामाराधनान्मर्त्यास्तरन्ति भवसागरम् ॥ सर्वेषु मन्त्रवर्येषु श्रेष्ठं वैष्णवमुच्यते ।गाणपत्येषु सौरेषु शाक्तशैवेष्वभीष्टदम् ॥ वैष्णवेष्वपि मन्त्रेषु राममन्त्राः फलाधिकाः। गाणपत्यादिमन्त्रेभ्यः कोटिकोटिगुणाधिकाः ॥ विष्णुशय्यास्थितो वह्निरिन्दुभूषितमस्तकः ।रामाय हृदयान्तोऽय महाघौघविनाशनः ॥ सर्वेषु राममन्त्रेषु ह्यतिश्रेष्ठः षडक्षरः ।ब्रह्महत्या सहस्राणि ज्ञाताज्ञातकृतानि च ॥“ – (नारदपुराण।पूर्वभाग।तृतीयपाद।अध्याय ७३।१-५)
पद्म-पुराण और राम-रक्षास्तोत्र भी इस तथ्य पर अपनी सहमति इस प्रकार देते हैं:-
“श्रीरामेतिपरंजाप्यंतारकंब्रह्मसंज्ञकम्।ब्रह्महत्यादिपापघ्नमितिवेदविदोविदुः॥“
– (रामरक्षास्तोत्र)
“षडक्षरंमहामंत्रंतारकंब्रह्मउच्यते ।येजपंतिहिमांभक्त्यातेषांमुक्तिर्नसंशयः ॥ इंदीवरदलश्यामंपद्मपत्रविलोचनम् ।शंखांगशार्ङ्गेषुधरंसर्वाभरणभूषितम् ॥ पीतवस्त्रंचतुर्बाहुंजानकीप्रियवल्लभम् ।श्रीरामायनमइत्येवमुच्चार्य्यंमन्त्रमुत्तमम् ॥ षडक्षरंमहामंत्रंरघूणांकुलबर्द्धनम् ।जपन्वैसततंदेविसदानंदसुधाप्लुतम् । सुखमात्यंतिकंब्रह्मह्यश्नामसततंशुभे ॥
-(पद्मपु. उत्तरखण्ड २३५।४३-४५,६३)”
अगस्त्यसंहिता के अनुसार-
सर्वेषामवतारीनामवतारीरघूत्तमः।रामपादनखज्योत्सनापरब्रह्मेतिगीयते॥
और वाराह संहिता तो डिम-डिम घोष कर कह रहा है –
“नारायणोऽपिरामांशःशङ्खचक्रगदाधरः॥“
भगवान् श्री राम की सर्वश्रेष्ठ-भजनीयता सतत रूप से आज भी दर्शनीय है।आद्यजगद्गुरुशंकराचार्य अपने रामभुजंगप्रयास्तोत्र में भगवान् श्री राम की श्लाघनीय स्तुति की है जनके कुछ श्लोक उद्धृत किये जा रहे हैं :-
“विशुद्धंपरंसच्चिदानन्दरूपंगुणाधारमाधारहीनंवरेण्यम्। महान्तंविभान्तंगुहान्तंगुणान्तंसुखान्तंस्वयंधामरामंप्रपद्ये॥१॥
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(अर्थात्, जो शुद्ध सच्चिदानन्द परमात्मस्वरूप हैं, सर्वथा निराधार होते हुए भी सभी गुणों के आधार हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं, सबसे महान् हैं, प्रत्येक प्राणी के हॄदय-गुहा में विराजमान हैं, अनन्तानन्त गुणों की सीमा हैं और सर्वोपरि सुखस्वरूप हैं, उन स्वप्रकाश स्वरूप भगवान् श्री राम की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।)
“शिवंनित्यमेकंविभुंतारकाख्यंसुखाकारमाकारशून्यंसुमान्यम्। महेशंकलेशंसुरेशंपरेशंनरेशंनिरीशंमहीशंप्रपद्ये॥२॥”
(अर्थात्, जो परम कल्याण-स्वरूप, त्रिकाल में नित्य, सर्वसमर्थ, तारक राम के नाम से प्रसिद्ध, सुख के निधान, आकार शून्य, सर्वमान्य, ईश्वर के भी ईश्वर, सम्पूर्ण कलाओं के स्वामी परन्तु उनका स्वामी कोई नहीं, सम्पूर्ण मनुष्यों के स्वामी, पृथ्वी के भी स्वामी पर उनका कोई शासक नहीं है; मैं उन भगवान् श्री राम की शरण लेता हूँ।)
“पुरःप्राञ्जलीनाञ्जनेयादिभक्तान्स्वचिन्मुद्रयाभद्रयाबोधयन्तम्। भजेऽहंभजेऽहंसदारामचन्द्रंत्वदन्यंनमन्येनमन्येनमन्ये॥७॥“
(अर्थात्, भगवान् श्री राम के समक्ष अञ्जनी नन्दन हनुमान् आदि भक्त अञ्जलि बाँधे खड़े हैं और वे उन्हें अपनी चिन्मय मुद्रा से कल्याणकारी उपदेश दे रहे हैं। मैं ऐसे भगवान् श्री रामचन्द्र का सदा बार-बार भजन करता हूँ तथा आपको छोड़कर त्रिकाल (जाग्रत्, स्वप्न तथा सुषुप्ति) में भी किसी अन्य को नहीं मानता।
श्रीयामुनाचार्य (जो आद्यजगद्गुरुरामानुजाचार्य के रामभक्ति के वास्तविक शिक्षा-दीक्षा गुरु माने जाते हैं) ने अपने ’स्तोत्ररत्नम्’ में लिखा है :-
“ननुप्रपन्नःसकृदेवनाथतवाहमस्मीतिचयाचमानः।तवानुकम्प्यःस्मरतःप्रतिज्ञांमदेकवर्जंकिमिदंव्रतंते॥“
अर्थात्, हे नाथ आप अपनी उस प्रतिज्ञा (मैं आपका हूँ यह यह कहकर यदि कोई भी मेरी शरण में एक बार आ जाता है तो मैं उसे सभी जीवों से तात्कालिक एवम् आत्यन्तिक अभय प्रदान कर देता हूँ) का स्मरण करें तथा मुझपर अनुकम्पा कर अपना लें अन्यथा क्या यह शरणागतपालक-व्रत मुझ अकिञ्चन को छोड़कर किया गया? और तो और ।
अब्दुरर्हीमखानखाना की दीनता भरी प्रार्थना हृदय को विगलित कर भगवान् श्री राम का ध्यान साकार तो करता ही है:-
“अहल्यापाषाणःप्रकृतिपशुरासीत्कपिचमूर्गुहोऽभूच्चण्डालस्त्रितयमपिनीतंनिजपदम्। अहंचित्तेनाश्मापशुरपितवार्चादिकरणेक्रियाभिश्चाण्डालोरघुवरनमामुद्धरसिकिम्॥“
(अर्थात् अहल्या पत्थर की शिला थी और वानर सेना स्वभाव से पशु समूह था। गुह (निषादराज) चाण्डाल था। इन तीनों को आपने अपने पद मे ले गये। मैं चित्त से पत्थर, आपके पुण्यराशि से विमुख निरापशु और अपने कर्मों से चाण्डाल हूँ। क्या मेरा उद्धार नहीं करोगे?) उपरोक्त शास्त्रीय सन्दर्भों के आलोक में यह स्पष्ट रूपेण प्रमाणित हो रहा है कि संप्रदाय-परम्परा से निरपेक्ष चारों युगों में द्विभुज भगवान् श्री राम की अविच्छिन्न उपासना होती रही है। तभी तो कलिपावनावतार हुलसी-हर्षवर्धन गोस्वामी तुलसीदासजी ने उद्घोषणा की-
“शम्भुविरंचिविष्णुभगवाना।उपजहिंजासुअंशतेनाना॥“
-(रामचरितमानस-१।१४४।६)
अब यदि अपने सम्प्रदाय का अभिमत देखना चाहें तो जगद्गुरुआद्यरामानन्दाचार्यजी ने अपने श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर में स्पष्टतः कहा कि:-
“द्विभुजस्यैवरामस्यसर्वशक्तेःप्रियोत्तम।ध्यानमेवविधातव्यंसदारामपरायणैः॥५९॥“
अर्थात्, हे प्रियोत्तम! श्रीराम परायणों द्वारा सर्वदा सर्वशक्तिमान् दो भुजाओं वाले श्रीराम जी का ही इस प्रकार ध्यान करना चाहिये। तब यह कहने को विवश कर देता है-
दक्षिणीय अमेरिका की माया सभ्यता में राम और सीता को आज भी मेक्सिको के एजटेक समाज के लोग “रामसितवा ” उत्सव के रूप में स्मरण करते हैं ,
यूरोपीय इतिहास कार व पुरातात्विक विशेषज्ञ डा०मार्टिन का विवरण है कि पूर्व से लंका मार्ग से होते हुए माया सभ्यता के लोग मैक्सिको( दक्षि़णीय अमेरिका में बसे !
एजटेक पुरातन कथाओं में वर्णन है कि उस देश में
प्रथम: एक लम्बी दाढ़ी ,ऊँचे कद़ तथा श्वेत वर्ण का एक पूर्वज किसी अज्ञात स्थान से आया ।
जिसने इस देश में कृषि शिल्प तथा शिक्षा एवं संस्कृति और सभ्यता का विकास किया ।
माया पुरातन कथाओं में उस महान आत्मा का नाम क्वेट – सालकटली है ।
क्वेट सालकटली का तादात्म्य राम के समकालिक श्वेत साल कटंकट से प्रस्तावित है ।
गहन काल गणना के द्वारा राम का समय ७००० हजार वर्ष पूर्व निश्चित होता है ,परन्तु रूढ़ि वादी परम्परा राम का समय ९००००० वर्ष मानती है ।
श्रीरामचन्द्र जी का काल पुराणों के अनुसार करोड़ो वर्षों पुराना हैं। हमारा आर्याव्रत देश में महाभारत युद्ध के काल के पश्चात और उसमें भी विशेष रूप से पिछले २५०० वर्षों में अनेक परिवर्तन हुए हैं जैसे ईश्वरीय वैदिक धर्म का लोप होना और मानव निर्मित मत मतान्तर का प्रकट होना जिनकी अनेक मान्यतें वेद विरुद्ध थी। ऐसा ही एक मत था वाममार्ग जिसकी मान्यता थी की माँस, मद्य, मीन आदि से ईश्वर की प्राप्ति होती हैं।
वाममार्ग के समर्थकों ने जब यह पाया की जनमानस में सबसे बड़े आदर्श श्री रामचंद्र जी हैं इसलिए जब तक उनकी अवैदिक मान्यताओं को श्री राम के जीवन से समर्थन नहीं मिलेगा तब तक उनका प्रभाव नहीं बढ़ेगा। इसलिए उन्होंने श्री राम जी के सबसे प्रमाणिक जीवन चरित वाल्मीकि रामायण में यथानुसार मिलावट आरंभ कर दी जिसका परिणाम आपके सामने हैं।
महात्मा बुद्ध के काल में इस प्रक्षिप्त भाग के विरुद्ध”दशरथ जातक” के नाम से ग्रन्थ की स्थापना करी जिसमें यह सिद्ध किया की श्री राम पूर्ण रूप से अहिंसा व्रत धारी थे और भगवान बुद्ध पिछले जन्म में राम के रूप में जन्म ले चुके थे। कहने का अर्थ यह हुआ की जो भी आया उसने श्री राम जी की अलौकिक प्रसिद्धि का सहारा लेने का प्रयास लेकर अपनी अपनी मान्यताओं का प्रचार करने का पूर्ण प्रयास किया।
यही से प्रक्षिप्त श्लोकों की रचना आरंभ हुई।
इस लेख को हम तीन भागों में विभाजित कर अपने विषय को ग्रहण करने का प्रयास करेगे।
१. वाल्मीकि रामायण का प्रक्षिप्त भाग
२. रामायण में माँसाहार के विरुद्ध स्वयं की साक्षी
३. वेद और मनु स्मृति की माँस विरुद्ध साक्षी
वाल्मीकि रामायण का प्रक्षिप्त भाग
इस समय देश में वाल्मीकि रामायण की जो भी पांडुलिपियाँ मिलती हैं वह सब की सब दो मुख्य प्रतियों से निकली हैं। एक हैं बंग देश में मिलने वाली प्रति जिसके अन्दर बाल, अयोध्या,अरण्यक,किष्किन्धा ,सुंदर और युद्ध ६ कांड हैं और कूल सर्ग ५५७ और श्लोक संख्या १९७९३ हैं जबकि दूसरी प्रति बम्बई प्रान्त से मिलती हैं जिसमें बाल, अयोध्या,अरण्यक,किष्किन्धा ,सुंदर और युद्ध इन ६ कांड के अलावा एक और उत्तर कांड हैं, कूल सर्ग ६५० और श्लोक संख्या २२४५२८ हैं।
दोनों प्रतियों में पाठ भेद होने का कारण सम्पूर्ण उत्तर कांड का प्रक्षिप्त होना, कई सर्गों का प्रक्षिप्त होना हैं एवं कई श्लोकों का प्रक्षिप्त होना हैं।
प्रक्षिप्त श्लोक इस प्रकार के हैं
१. वेदों की शिक्षा के प्रतिकूल:- जैसे वेदों में माँस खाने की मनाही हैं जबकि वाल्मीकि रामायण के कुछ श्लोक माँस भक्षण का समर्थन करते हैं अत: वह प्रक्षिप्त हैं।
२. श्री रामचंद्र जी के काल में वाममार्ग आदि का कोई प्रचलन नहीं था इसलिए वाममार्ग की जितनी भी मान्यताएँ हैं , उनका वाल्मीकि रामायण में होना प्रक्षिप्त हैं।
३. ईश्वर का बनाया हुआ सृष्टि नियम आदि से लेकर अंत तक एक समान हैं इसलिए सृष्टि नियम के विरुद्ध जो भी मान्यताएँ हैं वे भी प्रक्षिप्त हैं जैसे हनुमान आदि का वानर (बन्दर) होना, जटायु आदि का गिद्ध होना आदि क्यूंकि पशु का मनुष्य के समान बोलना असंभव हैं। हनुमान, जटायु आदि विद्वान एवं परम बलशाली श्रेष्ठ मनुष्य थे।
४. जो प्रकरण के विरुद्ध हैं वह भी प्रक्षिप्त हैं जैसे सीता की अग्नि परीक्षा आदि असंभव घटना हैं जिसका राम के युद्ध में विजय के समय हर्ष और उल्लास के बीच तथा १४ वर्ष तक जंगल में भटकने के पश्चात अयोध्या वापसी के शुभ समाचार के बीच एक प्रकार का अनावश्यक वर्णन हैं।
रामायण में माँसाहार के विरुद्ध स्वयं की साक्षी
श्री राम और श्री लक्ष्मण द्वारा यज्ञ की रक्षा
रामायण के बाल कांड में ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ के समक्ष जाकर उन्हें अपनी समस्या बताते हैं की जब वे यज्ञ करने लगते हैं तब मारीच और सुबाहु नाम के दो राक्षस यज्ञ में विघ्न डालते हैं एवं माँस, रुधिर आदि अपवित्र वस्तुओं से यज्ञ को अपवित्र कर देते हैं। रजा दशरथ श्री रामचंद्र एवं लक्ष्मण जी को उनके साथ राक्षसों का विध्वंस करने के लिए भेज देते हैं जिसका परिणाम यज्ञ का निर्विघ्ड॒न सम्पन्न होना एवं राक्षसों का संहार होता हैं।
जो लोग यज्ञ आदि में पशु बलि आदि का विधान होना मानते हैं, वाल्मीकि रामायण में राजा दशरथ द्वारा किये गये अश्वमेध यज्ञ में पशु बलि आदि का होना मानते हैं उनसे हमारा यह स्पष्ट प्रश्न हैं अगर यज्ञ में पशु बलि का विधान होता तो फिर ऋषि विश्वामित्र की तो राक्षस उनके यज्ञ में माँस आदि डालकर उनकी सहायता कर रहे थे नाकि उनके यज्ञ में विघ्न डाल रहे थे।
इससे तो यही सिद्ध होता हैं की रामायण में अश्वमेध आदि में पशु बलि का वर्णन प्रक्षिप्त हैं और उसका खंडन स्वयं रामायण से ही हो जाता हैं।
ऋषि वशिष्ठ द्वारा ऋषि विश्वामित्र का सत्कार
एक आक्षेप यह भी लगाया हैं की प्राचीन भारत की प्राचीन भारत में अतिथि का सत्कार माँस से किया जाता था।
इस बात का खंडन स्वयं वाल्मीकि रामायण में हैं जब ऋषि विश्वामित्र ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में पधारते हैं तब ऋषि वशिष्ठ ऋषि विश्वामित्र का सत्कार माँस आदि से नहीं अपितु सब प्रकार से गन्ने से बनाये हुए पदार्थ, मिष्ठान,भात खीर,दाल, दही आदि से किया। यहाँ पर माँस आदि का किसी भी प्रकार का कोई उल्लेख नहीं हैं। वाल्मीकि कांड बाल कांड सर्ग ५२ एवं सर्ग ५३ श्लोक १-६
श्री राम जी की माँसाहार की विरुद्ध स्पष्ट घोषणा
अयोध्या कांड सर्ग २ के श्लोक २९ में जब श्री राम जी वन में जाने की तैयारी कर रहे थे तब माता कौशल्या से श्री राम जी ने कहाँ मैं १४ वर्षों तक जंगल में प्रवास करूँगा और कभी भी वर्जित माँस का भक्षण नहीं करूँगा और जंगल में प्रवास कर रहे मुनियों के लिए निर्धारित केवल कंद मूल पर निर्वाह करूँगा।
इससे स्पष्ट साक्षी रामायण में माँस के विरुद्ध क्या हो सकती हैं।
श्री राम जी द्वारा सीता माता के कहने पर स्वर्ण हिरण का शिकार करने जाना ।
एक शंका प्रस्तुत की जाती हैं की श्री रामचंद्र जी महाराज ने स्वर्ण मृग का शिकार उसके माँस का खाने के लिए किया था।
इस शंका का उचित उत्तर स्वयं रामायण में अरण्य कांड में मिलता हैं।
माता सीता श्री रामचंद्र जी से स्वर्ण मृग को पकड़ने के लिए इस प्रकार कहती हैं-
यदि आप इसे जीवित पकड़ लेते तो यह आश्चर्य प्रद पदार्थ आश्रम में रहकर विस्मय करेगा- अरण्यक कांड सर्ग ४३ श्लोक १५
और यदि यह मारा जाता हैं तो इसकी सुनहली चाम को चटाई पर बिछा कर मैं उस पर बैठना पसंद करुँगी।-
अरण्यक कांड सर्ग ४३ श्लोक १९
इससे यह निश्चित रूप से सिद्ध होता हैं की स्वर्ण हिरण का शिकार माँस खाने के लिए तो निश्चित रूप से नहीं हुआ था।
वीर हनुमान जी का सीता माता के साथ वार्तालाप
वीर हनुमान जब अनेक बाधाओं को पार करते हुए रावण की लंका में अशोक वाटिका में पहुँच गये तब माता सीता ने श्री राम जी का कुशल क्षेम पूछा तो उन्होंने बताया की
राम जी न तो माँस खाते हैं और न ही मद्य पीते हैं। :-वाल्मीकि रामायण सुंदर कांड ३६/४१
सीता का यह पूछना यह दर्शाता हैं की कहीं श्री राम जी शोक से व्याकुल होकर अथवा गलत संगत में पढ़कर वेद विरुद्ध अज्ञान मार्ग पर न चलने लगे हो।
अगर माँस भक्षण उनका नियमित आहार होता तब तो सीता जी का पूछने की आवश्यकता ही नहीं थी।
इससे वाल्मीकि रामायण में ही श्री राम जी के माँस भक्षण के समर्थन में दिए गये श्लोक जैसे
अयोध्या कांड ५५/३२,१०२/५२,९६/१-२,५६/२४-२७
अरण्यक कांड ७३/२४-२६,६८/३२,४७/२३-२४,४४/२७
किष्किन्धा कांड १७/३९
सभी प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं।
वेद और मनु स्मृति की माँस विरुद्ध साक्षी
वेद में माँस भक्षण का स्पष्ट विरोध
ऋग्वेद ८.१०१.१५ – मैं समझदार मनुष्य को कहे देता हूँ की तू बेचारी बेकसूर गाय की हत्या मत कर, वह अदिति हैं अर्थात काटने- चीरने योग्य नहीं हैं.
ऋग्वेद ८.१०१.१६ – मनुष्य अल्पबुद्धि होकर गाय को मारे कांटे नहीं.
अथर्ववेद १०.१.२९ –तू हमारे गाय, घोरे और पुरुष को मत मार.
अथर्ववेद १२.४.३८ -जो(वृद्ध) गाय को घर में पकाता हैं उसके पुत्र मर जाते हैं.
अथर्ववेद ४.११.३- जो बैलो को नहीं खाता वह कस्त में नहीं पड़ता हैं
ऋग्वेद ६.२८.४ –गोए वधालय में न जाये
अथर्ववेद ८.३.२४ –जो गोहत्या करके गाय के दूध से लोगो को वंचित करे , तलवार से उसका सर काट दो
यजुर्वेद १३.४३ –गाय का वध मत कर , जो अखंडनिय हैं ।
अथर्ववेद ७.५.५ –वे लोग मूढ़ हैं जो कुत्ते से या गाय के अंगों से यज्ञ करते हैं
यजुर्वेद ३०.१८-गोहत्यारे को प्राण दे
महाभारत में मनु स्मृति के प्रक्षिप्त होने की बात का समर्थन इस प्रकार किया हैं:-
महात्मा मनु ने सब कर्मों में अहिंसा बतलाई हैं, लोग अपनी इच्छा के वशीभूत होकर वेदी पर शास्त्र विरुद्ध हिंसा करते हैं। शराब, माँस, द्विजातियों का बली, ये बातें धूर्तों ने फैलाई हैं, वेद में यह नहीं कहा गया हैं। महाभारत शांति पर्व मोक्ष धर्म अध्याय २६६
माँस खाने के विरुद्ध मनु स्मृति की साक्षी
जिसकी सम्मति से मारते हो और जो अंगों को काट काट कर अलग करता हैं। मारने वाला तथा क्रय करने वाला,विक्रय करनेवाला, पकानेवाला, परोसने वाला तथा खाने वाला ये ८ सब घातक हैं। जो दूसरों के माँस से अपना माँस बढ़ाने की इच्छा रखता हैं, पितरों, देवताओं और विद्वानों की माँस भक्षण निषेधाज्ञा का भंग रूप अनादर करता हैं उससे बढ़कर कोई भी पाप करने वाला नहीं हैं।
मनु स्मृति ५/५१,५२
मद्य, माँस आदि यक्ष,राक्षस और पिशाचों का भोजन हैं। देवताओं की हवि खाने वाले ब्राह्मणों को इसेको इसे कदापि न खाना चाहिए।
मनु स्मृति ११/७५
जिस द्विज ने मोह वश मदिरा पी लिया हो उसे चाहिए की आग के समान गर्म की हुई मदिरा पीवे ताकि उससे उसका शरीर जले और वह मद्यपान के पाप से बचे। मनुस्मृति ११/९०
इसी अध्याय में मनु जी ने श्लोक ७१ से ७४ तक मद्य पान के प्रायश्चित बताये हैं।
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वैज्ञानिक तथा प्लेनिटेरियम सॉफ्टवेयर के अनुसार राम जन्म 10 जनवरी 7,393 ई° पूर्व हुआ था, यह गणना हिन्दू कालगणना से मेल खाता है।
किन्तु जिस आधार पर यह गणना की गई है, उन ग्रह नक्षत्रों की वही स्थिति निश्चित समय अंतराल पर दोहराई जाती है और सॉफ्टवेयर द्वारा निकला गया दिनांक सबसे निकट के समय को ही संदर्भित करता है,
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अतः यह समय इससे बहुत पूर्व का भी हो सकता है क्योंकि हिन्दू काल गणना के अनुसार राम त्रेतायुग में पैदा हुए थे जो नौ (९)लाखवर्ष पूर्व हुआ था ।
वाल्मीकि पुराण के अनुसार राम जन्म के दिन पाँच ग्रह अपने उच्च स्थान में स्थापित थे, नौमी तिथि चैत्र शुक्लपक्ष तथा पुनर्वसु नक्षत्र था। जिसके अनुसार सूर्य मेष में 10 डिग्री, मंगल मकर में 28 डिग्री, ब्रहस्पति कर्क में 5 डिग्री पर, शुक्र मीन में 27 डिग्री पर एवं शनि तुला राशि में 20 डिग्री पर था ।
सर्वप्रथम शम्बूक कथा का वर्णन वाल्मीकि रामायण में उत्तर कांड के 73-76 सर्ग में मिलता हैं। जो कि वाद में पुष्य- मित्र सुंग के अनुयायी पुरोहित वर्ग ने रामायण के रूप में निबद्ध कर दिया है |
निश्चित रूप से राम-कथा पर आधारित वाल्मीकि-रामायण भी वर्तमान में वाल्मीकि रचित कृति नहीं है ।
यह बौद्ध धर्म की प्रति क्रिया स्वरूप लिखी हुआ ग्रन्थ है
इन्हीं लोगों ने अयोध्या काण्ड में महात्मा बुद्ध ( ई०पू० ५६६) को भी चोर और नास्तिक के रूप में उपस्थित कर दिया है
वह भी राम के मुख से जावालि ऋषि और राम के सम्वाद रूप में वर्णित है –
” यथा हि चोरः स तथा हि|
बुद्धस्तथागतं नास्तिकमेव विधि|| अयोध्या काण्ड २/१०९/३४ यह विचारणीय है कि राम के समय बुद्ध कब थे ?
शम्बूक वध की काल्पनिक कथा भी इसी प्रकार हैं-
हिन्दी- अनुवाद —-
“एक दिन एक ब्राह्मण का इकलौता बेटा मर गया। उस ब्राह्मण ने लड़के के शव को लाकर राजद्वार पर डाल दिया और विलाप करने लगा। उसका आरोप था की बालक की अकाल मृत्यु का कारण राज का कोई दुष्कृत्य हैं। ऋषि- मुनियों की परिषद् ने इस पर विचार करके निर्णय दिया की राज्य में कहीं कोई अनधिकारी तप कर रहा हैं। रामचंद्र जी ने इस विषय पर विचार करने के लिए मंत्रियों को बुलाया। नारद जी ने उस सभा में कहा- राजन! द्वापर में भी शुद्र का तप में प्रवत होना महान अधर्म हैं (फिर त्रेता में तो उसके तप में प्रवत होने का प्रश्न ही नहीं उठता?)। निश्चय ही आपके राज्य की सीमा में कोई खोटी बुद्धिवाला शुद्र तपस्या कर रहा हैं। उसी के कारण बालक की मृत्यु हुई हैं। अत: आप अपने राज्य में खोज कीजिये और जहाँ कोई दुष्ट कर्म होता दिखाई दे वहाँ उसे रोकने का यतन कीजिये। यह सुनते ही रामचन्द्र जी पुष्पक विमान पर सवार होकर शुम्बुक की खोज में निकल पड़े और दक्षिण दिशा में शैवल पर्वत के उत्तर भाग में एक सरोवर पर तपस्या करते हुए एक तपस्वी मिल गया जो पेड़ से उल्टा लटक कर तपस्या कर रहा था।
उसे देखकर श्री रघुनाथ जी उग्र तप करते हुए उस तपस्वी के पास जाकर बोले- “उत्तम तप का पालन करते हए तापस! तुम धन्य हो। तपस्या में बड़े- चढ़े , सुदृढ़ पराक्रमी पुरुष! तुम किस जाति में जन्म हुआ है
जब शम्बूक कहता है कि मैं शूद्र हूँ ..तभी राम अपनी तलवार से उसका वध कर देते है “”
वस्तुतः यह काल्पनिक कथा शूद्रों के ज्ञान तपशचर्या तथा संस्कार ग्राह्यता के निषेधीकरण को आधार मानकर रची गयी है | और इसे राम से सम्बद्ध कर दिया गया है ?
निश्चित रूप से यह घटना कृत्रिम रूप से पिरोयी गयी है
भाषा भी बुद्ध के परवर्ती काल की है ।
राम के समकालिक पात्र वेदों में वर्णित हैं ।उदाहरण
उदाहरण के तौर पर – इक्ष्वांकु (अथर्ववेद 19-39-9), दशरथ (ऋग्वेद 1-126-4), कैकेय (शतपथ ब्राह्मण 10-6-1-2) तथा जनक (शतपथ ब्राह्मण) आदि।
इस नाम के अन्य पात्र
सम्भव है कि तत्कालीन भारत में इस नाम के अन्य पात्र भी रहे हों। हालांकि कई लोग इस तर्क को नकारते हैं।
राम-जन्म की घटना
उनके साथ जुड़े गुण उन्हें रामकथा से संबंधित करते अवश्य प्रतीत होते हैं, परन्तु यह उल्लेखनीय है कि राम-जन्म की घटना, वैदिक साहित्य के बहुत बाद की है।
यह भी सम्भव
यह भी सम्भव है कि कालान्तर में इन नामों से संबधित अंश वैदिक साहित्य में जोड़ दिए गए हों।
रामकथा?
वाल्मीकि रामायण के आदिकाव्य और रामकथा के प्रथम गान के बावजूद तुलसीकृत ‘रामचरित मानस’ लोकप्रियता की दृष्टि से सबसे आगे है।
लोकप्रिय है रामकथा
लोकभाषा में होने के कारण इसने रामकथा को जनसाधारण में अत्यधिक लोकप्रिय बना दिया।
सीता राम का विवाह
इसमें भक्ति-भाव की प्रधानता है तथा राम का ईश्वरत्व पूरी तरह उभर आया है। सीता व राम का विवाह भी संभवतया तुलसीकृत रामायण के कारण ही प्रतिष्ठित और वंदित हुआ।
भक्ति रस का आस्वाद?
सीता-राम का विवाह प्रसंग पढ़ने, सुनने और भक्ति रस का आस्वाद लेने में तो अत्यंत मधुर है ही, साथ ही उसमें एक आश्वासन भी निहित है।
आश्वासन यह…
आश्वासन यह है कि जो इस मांगलिक प्रसंग का गायन, श्रवण करते हैं, उनके जीवन में आनंद उत्साह की प्राप्ति होती है। विवाह संबंधी कठिनाइयों को दूर करने के लिए श्रद्धालु इस प्रसंग का पाठ करते-कराते हैं।
यद्यपि वेदों मे कुछ तथ्य विपरीत भाव में मिलते हैं ।***वेद -शस्त्रों मे मांस -भक्षण के विधान ********
वैदिक साहित्य से पता चलता है की प्राचीन आर्य -ऋषि और याज्ञिक ब्राह्मण सूरा-पान और मांसाहार के बड़े शौकीन थे । यज्ञों मे पशु बाली अनिवार्य था बली किए पशु मांस पर पुरोहित का अधिकार होता था ,और वही उसका बटवारा भी करता था। बली पशुओ मे प्राय;घोडा ,गौ ,बैल अज अधिक होते थे.
“ऋग्वेद मे बली के समय पड़े जाने वाले मंत्रो के नमूने पड़िए;-
1- जिन घोड़ो को अग्नि मे बली दी जाती है ,जो जल पिता है जिसके ऊपर सोमरस रहता है ,जो यज्ञ का अनुष्ठाता है ,उसकी एवम उस अग्नि को मै प्रणाम करता हु।
( ऋग्वेद 10,91,14)
2- इंद्रा कहते है ,इंद्राणी के द्वारा प्रेरित किए गए यागिक लोग 15-20 सांड काटते और पकाते है । मै उन्हे खाकर मोटा होता हू । -ऋग्वेद 10,83,14
3- जो गाय अपने शरीर को देवों के लिए बली दिया करती है ,जिन गायों की आहुतियाँ सोम जानते है ,हे इंद्रा! उन गायों को दूध से परिपूर्ण और बच्छेवाली करके हमारे लिए गोष्ठ मे भेज दे ।
– ऋग्वेद 10,16,92
4- हे दिव्य बधिको!अपना कार्य आरंभ करो और तुम जो मानवीय बधिक हो ,वह भी पशु के चरो और आग घूमा चुकाने के बाद पशु पुरोहित को सौपदो। (एतरे ब्राह्मण )
5:– एतद उह व परम अन्नधम यात मांसम। (सत्पथ ब्राह्मण 11,4,1,3)
अर्थ ;- सटपथ ब्राह्मण कहता है, की जीतने भी प्रकार के खाद्द अन्न है,उन सब मे मांस सर्वोतम है
*******इस प्रकार ऐसे कई उदाहरण है जो वेदो-शास्त्रो मे मांस भक्षण के समर्थन मे आपको मिल जाएंगे ।
महर्षि याज्यावल्क्या ने षत्पथ ब्राह्मण (3/1/2/21) में कहा हैं कि: -“मैं गोमांस ख़ाता हू, क्योंकि यह बहुत नरम और स्वादिष्ट है.”
आपास्तंब गृहसूत्रं (1/3/10) मे कहा गया हैं,”गाय एक अतिथि के आगमन पर, पूर्वजों की’श्रद्धा’के अवसर पर और शादी के अवसर पर बलि किया जाना चाहिए.”
ऋग्वेद (10/85/13) मे घोषित किया गया है,”एक लड़की की शादी के अवसर पर बैलों और गायों की बलि की जाती हैं.”
पिबा सोममभि यमुग्र तर्द ऊर्वं गव्यं महि गर्णानैन्द्र
वि यो धर्ष्णो वधिषो वज्रहस्त विश्वा वर्त्रममित्रियाशवोभिः ||
वशिष्ठ धर्मसुत्रा (11/34)
लिखा हैं,”अगर एक ब्राह्मण’श्रद्धा’या पूजा के अवसर पर उसे प्रस्तुत किया गया मांस खाने से मना क
र देता है, तो वह नरक में जाता है.”पिबा सोममभि यमुग्र तर्द ऊर्वं गव्यं महि गर्णानैन्द्र | वि यो धर्ष्णो वधिषो वज्रहस्त विश्वा वर्त्रममित्रियाशवोभिः ||
वशिष्ठ धर्मसुत्रा (11/34) लिखा हैं,”अगर एक ब्राह्मण’श्रद्धा’या पूजा के अवसर पर उसे प्रस्तुत किया गया मांस खाने से मना कर देता है, तो वह नरक में जाता है.”
गाय पूज्य हैं
अथर्ववेद १२.४.६-८ में लिखा हैं जो गाय के कान भी खरोंचता हैं, वह देवों की दृष्टी में अपराधी सिद्ध होता हैं. जो दाग कर निशान डालना चाहता हैं, उसका धन क्षीण हो जाता हैं. यदि किसी भोग के लिए इसके बाल काटता हैं, तो उसके किशोर मर जाते हैं.
अथर्ववेद १३.१.५६ में कहाँ हैं जो गाय को पैर से ठोकर मरता हैं उसका मैं मूलोछेद कर देता हूँ.
गाय, बैल आदि सब अवध्य हैं
ऋगवेद ८.१०१.१५ :– मैं समझदार मनुष्य को कहे देता हूँ की तू बेचारी बेकसूर गाय की हत्या मत कर, वह अदिति हैं अर्थात काटने- चीरने योग्य नहीं हैं.
ऋगवेद ८.१०१.१६ – मनुष्य अल्पबुद्धि होकर गाय को मारे कांटे नहीं.
अथर्ववेद १०.१.२९ – तू हमारे गाय, घोरे और पुरुष को मत मार.
अथर्ववेद १२.४.३८ -जो (वृद्ध) गाय को घर में पकाता हैं उसके पुत्र मर जाते हैं.
अथर्ववेद ४.११.३- जो बैलो को नहीं खाता वह कस्त में नहीं पड़ता हैं
ऋगवेद ६.२८.४ – गोए वधालय में न जाये
अथर्ववेद ८.३.२४ – जो गोहत्या करके गाय के दूध से लोगो को वंचित करे , तलवार से उसका सर काट दो
यजुर्वेद १३.४३ – गाय का वध मत कर , जो अखंडनिय हैं
अथर्ववेद ७.५.५ – वे लोग मूढ़ हैं जो कुत्ते से या गाय के अंगों से यज्ञ करते हैं
यजुर्वेद ३०.१८- गोहत्यारे को प्राण दंड दो
वेदों से गो रक्षा के प्रमाण दर्शा कर स्वामी दयानन्द जी ने महीधर के यजुर्वेद भाष्य में दर्शाए गए अश्लील, मांसाहार के समर्थक, भोझिल कर्म कांड का खंडन कर उसका सही है ।
विचार विश्लेषण —यादव योगेश कुमार ” रोहि ”
क्वेट ज़ालमकटली एजटेक संस्कृति के जनक माने जाते हैं ।
वाल्मीकि-रामायण में सर्ग ८श्लोक संख्या २३-२४ में वर्णन है कि आर्यों से अथवा सुरों से पराजित होकर साल कटंकट वंश के असुर पाताल अथवा दक्षिणीय अमेरिका में चले गये -ये लोक मूलत: लंका के निवासी थे । ये मयासुर के वंशज थे ।
जो मैक्सिको सिटी दक्षिणीय अमेरिका में रामसितवा का उत्सव ले गये
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” अशक्नुवन्तस्ते विष्णुं प्रतयोद्धं बलार्दिता :।
त्यक्त्वा लंका गता वस्तु पातालं सह पत्नय:।।
सुमालिनं समासाद्य राक्षसं रघुसत्तम् ।
स्थिता प्रख्यात वीर्यासो वंशे साल कटंकटे।।
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अर्थात् विष्णु से युद्ध न कर सकने के कारण तथा पराजित होकर असुर लंका से पाताल लोक में सपरिवार चले गये ।
तथा श्वेत साल कटंकट वंश के असुरों ने अपना आवास वहीं बनाया ।
मैक्सिको निवासीयों की प्राचीन सभ्यता मय से सम्बद्ध होने से माया कहलाती है ।
मया सुर का वर्णन भारतीय पुराणों में वर्णित है ।
ये लोग मृतक का दाह संस्कार करते थे यूरोपीय तथा भारतीय आर्यों के समान थी ।
माया सभ्यता का आदि प्रवर्तक मय दानव आर्यों से पराजित होकर पाताल लोक अर्थात् दक्षि़णीय अमेरिका में वल गया भारत की अपेक्षा यह प्रथ्वी का पश्चिमीय गोलार्ध है ।अमेरिका की स्थित भारत के ठीक नीचे है ।
दुर्गा सप्तशती में असुरों के नाग लोक जाने का वर्णन है
दुर्गा कहती हैं :–
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“यूयं प्रयात पातालं यदि जीवितुमिच्छथ:”
अर्थात् यदु तुम जीवित रहना चाहते हो तो पाताल लोक को चले जाओ ” अत: बहुतायत से असुर लोक पाताल को चले गये ।
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A festival called Sita-Ram (Situa – Raimi) was celebrated in Mexico during Nav-Ratri or Dussehra period which has been described on page 5867 in the book ‘Hamsworth History of the World’. ( read my post0
Both in Central and South America, there are found Sati cremation, priesthood, gurukul system, yajna, birth, marriage and death ceremonies to some extent similar to the Hindus. When Pizarro killed Peruvian King Atahualpa his 4 wives committed Sati—or self sacrifice.
इंका दक्षिण अमेरीका के मूल निवासिओं (रेड इण्डियन जाति) की एक गौरवशाली उपजाति थी। इंका प्रशासन के सम्बन्ध में विद्वानों का ऐसा मत है कि उनके राज्य में वास्तविक राजकीय समाजवाद (स्टेट सोशियलिज्म) था तथा सरकारी कर्मचारियों का चरित्र अत्यंत उज्वल था। इंका लोग कुशल कृषक थे। इन्होंने पहाड़ियों पर सीढ़ीदार खेतों का प्रादुर्भाव करके भूमि के उपयोग का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया था। आदान-प्रदान का माध्यम द्रव्य नहीं था, अत: सरकारी करों का भुगतान शिल्पों की वस्तुओं तथा कृषीय उपजों में किया जाता था। ये लोग खानों से सोना निकालते थे, परंतु उसका मंदिरों आदि में सजावट के लिए ही प्रयोग करते थे। ये लोग सूर्य के उपासक थे और ईश्वर में विश्वास करते थे।
इतिहास –
१४३८-१५२७ ईसवी के काल में इंका सभ्यता का विस्तार
सन् ११०० ई. तक इंका लोग अपने पूर्वजों की भान्ति अन्य पड़ोसियों के जैसा जीवन ही व्ययतीत करते थे, परंतु लगभग सन् ११०० ई. में कुछ परिवार कुसको घाटी में पहुँचे जहाँ उन्होंने आदिम निवासियों को परास्त करके कुज़्को नामक नगर का शिलान्यास किया। यहाँ उन्होंने लामा नामक पशु के पालन के साथ-साथ कृषि भी आरंभ की। कालांतर में उन्होंने टीटीकाका झील के दक्षिण पश्चिम में अपने राज्य को प्रशस्त किया। सन् १५२८ ई. तक उन्होंने पेरू, ईक्वाडोर, चिली तथा पश्चिमी अर्जेंटीना पर भी अधिकार कर लिया। परन्तु यातायात के साधनों के अभाव में तथा गृहयुद्ध के कारण इंका साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।
एजटेक पुरातन संस्कृति है ।
अमेरिका की प्रचीन माया सभ्यता ग्वाटेमाला, मैक्सिको, होंडुरास तथा यूकाटन प्रायद्वीप में स्थापित थी। माया सभ्यता मैक्सिको की एक महत्वपूर्ण सभ्यता थी। इस सभ्यता का आरम्भ 1500 ई० पू० में हुआ। यह सभ्यता 300 ई० से 900 ई० के दौरान अपनी उन्नति के शिखर पर पहुंची इस सभ्यता के महत्वपूर्ण केन्द्र मैक्सिको, ग्वाटेमाला, होंडुरास एवं अल – सैल्वाड़ोर में थे। यद्यपि माया सभ्यता का अंत 16 वी शताब्दी में हुआ किन्तु इस पतन 11 वी शताब्दी से आरम्भ हो गया था
संस्कृत भाषा में आस्तीक नाम प्रचलित है
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विश्व पुरातन कथाओं में राम का वर्णन —
राम का वर्णन विश्व की प्राचीनत्तम संस्कृतियों में विद्यमान है ।
मिश्र की पुरातन कथाओं में राम और सीता परम्परागत राजाओं की उपाधि है :—Shri Rama in Egypt
The name Egypt is derived from Ajapati, named after Aja, Shree Rama’s grandfather. Etymologically, The title of Egypt’s ancient rulers, the dynasty of Ramesis, with the Sanskrit words “Ram Eisus,” meaning “Rama-the God” means Rulers were the descendants of Shri Rama-God.
मैक्सिको सिटी दक्षिणीय अमेरिका में माया सभ्यता की एजटेक शाखा सितुआ- रैमी के नाम से सदीयों से सीता और राम का उत्सव मनाती है ।
Categories: ancient india and mayan civilization, ancient indian science, ancient indian temples, ancient science, aztec, aztec mayan sumerian inca and
रामायण का रचनात्मक स्वरुप इतना अनूठा, सशक्त और जीवंत है कि अन्य कोई कथा उसे पचा नहीं पायी, उल्टे उसके आख्यान इसके उपाख्यान बन कर रह गये। उसकी विशिष्टता वस्तुत: उसके स्वरुप के लचीलापन में समाहित है। देश-काल के परिवर्तन के साथ राम कथा के अंतर्गत भी बदलाव आता गया। देशी-विदेशी साहित्य सर्जकों ने इसे अपने-अपने ढंग से सजाया संवारा। रामकथा जहाँ कहीं भी गयी, वहाँ के हवा-पानी में घुल-मिल गयी, किंतु अनगिनत परिवर्तनों के बीच भी उसकी सर्वोच्चता ज्यों की त्यों बनी रही, अनेक शिखरों वाले धवल-उज्जवल हिमालय की तरह जिसका रंग सुबह से शाम तक बार-बार बदलता है, फिर भी उसके मूल स्वरुप में कोई बदलाव होता नहीं दीखती। संभवत: इसी कारण रामकथा पर आधारित जितनी मौलिक कृतियों का सृजन हुआ, संसार के किसी भी अन्य कथा को वह सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सका।
राम चरित अनेक देशों के प्राकृतिक परिवेश, सामाजिक संदर्भ और सांस्कृतिक आदर्शों के अनुरुप ढलता-सँवरता रहा। रामकथा पर आधारित विदशी कृतियाँ विविधता और विचित्रम से परिपूर्ण है। इनमें कोई बहुत संक्षिप्त है,तो कोई अत्यधिक विस्तृत। किसी को बौद्ध जातकों के सांचे में ढाला गया है, तो किसी का इस्लामीकरण हुआ है। उसका रचनात्मक स्वरुप ढीला-ढाला रेश्मी जामें जैसा है जिसे जो कोई पहन ले तो खूब फबता है और कोई यह भी नहीं कह सकता कि यह किसी दूसरे से उधार लिया गया है।
रामायण की महनीयता उस परम सौंदर्य को रुपायित करने में अंतर्निहित है जिससे परम मंगलमय सत्य उद्भाषित होता है। रामायण का महानायक राम मर्यादा पूरुषोत्तम हैं। उनकी पुरुषोत्मता यथार्थ में जीकर मानवीय मूल्यों की रक्षा करने में समाहित है,तो उनकी ईश्वरीयता उस चिरंतन सत्य से अवतरित होती है जो प्राणियों के लिए हितकर है, ‘सत्यं भूतहितं प्रोक्तम्’। निर्गुण निर्पेक्ष सत्य का यही सगुण-सापेक्ष रुप राम के चरित्र में उजागर हुआ है। रामायण का सत्य और सौंदर्य उसकी शिवता में समाहित है और उसका मंगलघर अपरिमित आनंद रस से परिपूर्ण –
राम निस्सन्देह विश्व में प्राचीनत्तम चरित्र है ।
दुनियाँ में बहुत सी राम के जीवन से सम्बद्ध कथाऐं प्रचलित हैं ।
परन्तु बहुत सी काल्पनिक कथाओं का समायोजन राम के ऊपर आरोपित करके तत्कालीन रूढ़िवादी
ब्राह्मण समाज ने समाज में विकृितियों का ही बीज-वपन किया है । विदित हो कि समाज के सभी ब्राह्मण दोषी नहीं थे । और जो दोषी थे उन्हें उनके किये की सज़ा मिली ।
वाल्मीकि-रामायण के अयोध्या काण्ड सर्ग (१०९) के श्लोक (३४ )में राम द्वारा महात्मा बुद्ध को चोर तथा नास्तिक कहा जाना ”
भी इसी विकृति का उदहारण है ।
” यथा ही चोर स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि”
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अर्थात् जैसे चोर होता है वैसे ही तथागत बुद्ध को चोर तथा नास्तिक समझो…
जावालि ऋषि के नास्तिकता सेे पूर्ण वचन सुनकर उग्रतेज वाले श्री राम उन वचनों को सहन नहीं कर सके
और उनके वचनों की निन्दा करते हुए जावालि ऋषि से बोले :— निन्दाम्यहं कर्म पितु: कृतं , तद्धयास्तवामगृह्वाद्विप मस्तबुद्धिम् ।
बुद्धयाsनयैवंविधया चरन्त ,
सुनास्तिकं धर्मपथातपेतम् ।।
वाल्मीकि-रामायण अयोध्या काण्ड सर्ग १०९ के ३३ वें श्लोक—
अर्थात् हे जावालि मैं राम अपने पिता (दशरथ) के इस कार्य की निन्दा करता हूँ ।
कि तुम्हारे जैसे वेद मार्ग से भ्रष्ट-बुद्धि धर्म-च्युत नास्तिक को अपने यहाँ स्थान दिया है ।
क्योंकि बुद्ध जैसे नास्तिक मार्गी , जो दूसरों को उपदेश देते घूमा फिरा करते हैं ।
वे केवल घोर नास्तिक ही नहीं अपितु धर्म -मार्ग से पतित भी हैं ।
राम : बुद्ध के विषय में कहते हैं ।
“यथा ही चोर: स, तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि तस्माद्धिय: शक्यतम:
प्रजानानाम् स नास्तिकेनाभिमुखो बुद्ध: स्यातम्
———–. अयोध्या काण्ड १०९ वें सर्ग का ३४ वाँ श्लोक प्रमाण रूप में—-
अर्थात् जैसे चोर दण्ड का पात्र होता है
उसी प्रकार बुद्ध और उनके नास्तिक अनुयायी भी दण्डनीय हैं ।
———————————————————–
विचारणीय तथ्य है
कि बुद्ध के समकालिक राम कब थे ?
जबकि दक्षिण-अमेरिका में माया संस्कृति के अनुयायी लोग राम-सितवा के रूप में राम और सीता का उत्सव हजारों वर्षों से बुद्ध से भी पूर्व काल से मानते आरहे हैं ।
#आर्यवर्त