तारा माई के सच्चे भक्त : बाणाखेपा

पश्चिम बंगाल के एक गांव में वामा चरण नाम के बालक का जन्म हुआ । बालक के जन्म के कुछ समय बाद उसके पिता का देहांत हो गया । माता भी गरीब थी । इसलिए बच्चों के पालन पोषण की समस्या आई । उन्हें मामा के पास भेज दिया गया । मामा तारापीठ के पास के गांव में रहते थे । जैसा कि आमतौर पर अनाथ बच्चों के साथ होता है । दोनों बच्चों के साथ बहुत अच्छा व्यवहार नहीं हुआ ।
धीरे-धीरे वामाचरण की रुचि साधु संगति की तरफ होने लगी। गांव के मशान में आने वाले बाबाओं की संगत में रहते हुए बामाचरण में भी देवी के प्रति रुझान बढ़ने
लगा। अब वह तारा माई को बड़ी मां कहते और अपनी मां को छोटी मां ।

बामा चरण कभी श्मशान में जलती चिता के पास जाकर बैठ जाता, तो कभी यूं ही हवा में बातें करता रहता। ऐसे ही वह युवावस्था तक पहुंच गया। उसकी हरकतों की वजह से उसका नाम बामाचरण से वामा खेपा पड़ चुका था। खेपा का मतलब होता है पागल। यानी गांव वाले उसको आधा पागल समझते थे। उसके नाम के साथ उन्होंने पागल उपनाम जोड़ दिया था। वे यह नहीं जानते थे कि वस्तुत: कितनी उच्च कोटि का महामानव उनके साथ है।

वह भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि थी । मंगलवार का दिन था । भगवती तारा की सिद्धि का परम सिद्ध मुहूर्त । रात का समय था । बामाखेपा जलती हुई चिता के बगल में श्मशान में बैठा हुआ था तभी !

नीले आकाश से ज्योति फूट पड़ी और चारों तरफ प्रकाश ही प्रकाश फैल गया।

उसी प्रकाश में वामाचरण को माँ तारा के दर्शन हुए। ।
कमर में बाघ की खाल पहने हुए !

एक हाथ में कैंची लिए ।

एक हाथ में खोपड़ी लिए ।

एक हाथ में नीले कमल का पुष्प लिए ।

एक हाथ में खड्ग लिए हुए।

महावर लगे सुंदर पैरो में पायल पहने ।

खुले हुए कमर तक बिखरे केश से युक्त ,

परम ब्रह्मांड की स्वामिनी, सौंदर्य की प्रतिमूर्ति ।

नील वर्णी , मंद मंद मुसकाती माँ तारा, वामाखेपा के सामने खड़ी थी…….

वामाखेपा उस भव्य और सुंदर देवी को देखकर खुशी से भर गए। माता ने उसके सर पर हाथ फेरा और वामाखेपा वही समाधिस्थ हो गए ।

3 दिन और 3 रात उसी समाधि की अवस्था में वे श्मशान में रहे । 3 दिन के बाद उन्हें होश आया और होश आते ही वह मां मां चिल्लाते हुए इधर उधर दौडने लगे । अब गांव वालों को पूरा यकीन हो गया कि बामा पूरा पागल हो गया है । बामा की यह स्थिति महीने भर रही ….

कुछ दिन बाद वहां की रानी जी को सपने में भगवती तारा ने दर्शन दिए और निर्देश दिया कि मसान के पास मेरे लिए मंदिर का निर्माण करो और बामा को पुजारी बनाओ। अगले दिन से मंदिर निर्माण का कार्य प्रारंभ हो गया। कुछ ही दिनों में मंदिर बनकर तैयार हो गया और बामा को मंदिर का पुजारी बना दिया गया। बामा बेहद खुश हो गए क्योंकि उनकी बड़ी मां अब उनके साथ थी……

रानी के द्वारा बनाया मंदिर अर्थात मोटे चढ़ावे की संभावना। अब ऐसे मंदिर में एक आधे पागल को पुजारी बनाना बहुत से पण्डों को रास नहीं आया। वे बामाखेपा को निपटाने का मार्ग खोजते रहते थे। बामाखेपा की हरकतें अजीब अजीब हुआ करती थी । कई बार वह दिन भर पूजा करता । कई बार दो-तीन दिन तक पूजा ही नहीं करता। कभी देवी को माला पहनाता कभी खुद पहन लेता । इनमें से कोई भी क्रम पंडों के हिसाब से शास्त्रीय पूजन विधि से मैच नहीं खाता था । यह बात उनको खटक रही थी।

फिर एक दिन ऐसा हुआ कि प्रसाद बना और प्रसाद बनने के बाद जब मंदिर में पहुंचा तो देवी को भोग लगाने से पहले वामा चरण के मन में विचार आया, कि इसे चख कर देख लो कि यह माता के खाने के लायक है या नहीं । बस फिर क्या था । उन्होंने प्रसाद की थाली में हाथ डाला और चखने के लिए अपने मुंह में डाल लिया । चखने के बाद जब सही लगा तो बाकी प्रसाद उन्होंने माई को अर्पित कर दिया ।

इतना बड़ा अवसर पंडित कहाँ छोड़ते । उन्होंने बवाल मचा दिया कि, देवी के प्रसाद को बामा ने खा लिया है । उसे जूठा कर दिया है। जूठा प्रसाद देवी को चढ़ा दिया है । अब देवी रुष्ट हो जाएगी, उसका प्रकोप सारे गांव को झेलना पड़ेगा । उसके बाद भीड़तंत्र का बोलबाला हुआ और गांव वालों ने मिलकर पंडों के साथ बामाचरण की कस कर पिटाई कर दी । उसे श्मशान में ले जाकर फेंक दिया ।
मंदिर पर पण्डों का कब्जा हो गया । उन्होंने शुद्धिकरण और तमाम प्रक्रियाएं की । उस दिन पूजन पण्डों के अनुसार संपन्न हुआ ।

उधर बामाखेपा को होश आया तो वह माई पर गुस्सा हो गया – मैंने गलत क्या किया जो तूने मुझे पिटवा दिया । तुझे देने से पहले खाना स्वादिष्ट है या नहीं देख रहा था । इसमें मेरी गलती क्या थी ? मैं तो तुम्हें स्वादिष्ट भोग लगाने का प्रयास कर रहा था और चाहता था कि तुझे अच्छे स्वाद का प्रसाद ही मिले । अगर स्वाद गड़बड़ होता तो उसे फेककर दूसरा बनवाता । लेकिन तूने बेवजह मुझे पिटवाया जा मैं अब तेरे पास नही आऊंगा ।

मसान घाट पर बैठकर बामाचरण ने मां को सारी बातें सुना दी और वहां से उठकर चला गया जंगल की ओर । जंगल में जाकर एक गुफा में बैठ गया । यह स्थिति बिलकुल वैसे ही थी जैसे अपनी मां से रूठ कर बच्चे किसी कोने में जाकर छुप जाते हैं । बामाचरण और तारा माई के बीच में मां और बेटे जैसा रिश्ता था । यह रिश्ता बिल्कुल वैसा ही था जैसे एक अबोध शिशु और उसकी मां की बीच में होता है ।

अपने शिशु की व्यथा तारा माई को सहन नहीं हुई । उसी रात रानी के स्वप्न में माई प्रकट हुई ।

क्रोधित माई ने रानी को फटकार लगाई – तेरे पण्डों ने मेरे पुत्र को बुरी तरह से मारा है । मैं तेरा मंदिर छोड़ कर जा रही हूं । अब तुझे और तेरे राज्य को मेरा प्रकोप सहना पड़ेगा, अगर उससे बचना चाहती है तो कल के कल मेरे पुत्र को वापस लाकर मंदिर में पूजा का भार सौंप, वरना प्रतिफल भुगतने के लिए तैयार रह ।

एक तो तारा माई का रूप ऐसे ही भयानक है । क्रोधित अवस्था में तो सीधी सरल माता भी काली से कम नहीं दिखाई देती । क्रोधित माई का स्वरूप व्याख्या से परे था ।

रानी हड़बड़ा कर पलंग पर उठ बैठी । रानी के लिए रात बिताना भी मुश्किल हो गया । उसने सारी रात जागकर बिताई ।

अगले दिन अपने सेवकों को दौड़ाया और मामले का पता लगाने के लिए कहा । जैसे ही पूरी जानकारी प्राप्त हुई रानी अपने लाव लश्कर के साथ मंदिर पहुंच गई । सारे पण्डों को कसकर फटकार लगाई और मंदिर में प्रवेश से प्रतिबंधित कर दिया । अपने सेवकों को आदेश दिया कि जैसे भी हो बामाखेपा को ढूंढ कर लाओ ।

अब सारे सेवक चारों तरफ बामाखेपा की खोज में लग गए । एक सेवक को गुफा में बैठा हुआ बामाखेपा मिल गया । बड़ी मनोव्वल के बाद भी वह नहीं माना तो सेवक ने जाकर रानी को बात बताई । अंततः रानी खुद गुफा तक पहुंची ।

बामा ने उनपर भी अपना गुस्सा उतारा – आप के कहने पर मैं पूजा कर रहा था और मुझे देखो इन लोगों ने कितना मारा !

उनकी बाल सुलभ सहजता को देखकर रानी का नारी हृदय भी ममत्व से भर गया । उनकी समझ में आ गया कि तारा माई का मातृत्व इस बामाखेपा के प्रति क्यों है ।

उन्होंने फरमान जारी कर दिया – इस मंदिर का पुजारी बामाखेपा है । उसकी जैसी मर्जी हो जैसी विधि वह करना चाहे उस प्रकार से पूजा करने के लिए वह स्वतंत्र है। कोई भी उसके मार्ग में आएगा तो दंड का भागी होगा। यह मंदिर बामाखेपा का है और तारा माई भी बामाखेपा की है। वह जिस विधान को सही समझे, उस विधान से पूजा करेगा और वही विधान यहां पर सही माना जाएगा।

बामाखेपा को तो जैसे मन मांगी मुराद मिल गई । मां और बेटे का मिलन हो चुका था । मंदिर व्यवस्था फिर से बामाखेपा के हिसाब से चलने लगी ।

ऐसा माना जाता है कि तारा माई खुद बामाखेपा के हाथ से प्रसाद ग्रहण करती थी । ऐसे अद्भुत ढंग से बामाखेपा तारा माई के पूजन करते जिसका कोई नियम नहीं था । कभी सुबह 4 बजे पूजा चल रही है तो कभी दोपहर 12 बजे तक पूजा प्रारंभ नहीं होती । कभी रात भर पूजा चल रही है तो कभी पूरे दिन भर मंदिर की ओर बामाखेपा के दर्शन ही नहीं होते थे। उनकी पूजन विधि लोगों को पसंद नहीं थी, लेकिन उनके पास कोई उपाय नहीं था, क्योंकि रानी का फरमान था । बामाखेपा अपनी मस्ती में जीते थे और लोग उन्हें नीचा दिखाने का रास्ता खोजते ।

एक दिन बामाखेपा की मां का निधन हो गया । नदी में बाढ़ थी । नदी के उस पार गांव था ।बामा जिद पर अड़ गए छोटी मां का दाह संस्कार बड़ी मां के पास वाले श्मशान में किया जाएगा । गांव वाले बाढ़ वाली नदी को पार करने में जान का खतरा है यह जानते थे, लेकिन बामा को समझाना किसी के बस की बात नहीं ।

नाव वाले से बाबा ने देह को नदी के पार पहुंचाने की बात की । नाव वाले ने साफ इंकार कर दिया । बाबा ने नाव देने के लिए कहा । नाव वाला हाथ जोड़कर बोला -“बाबा यही मेरे जीवन का सहारा है अगर बाढ़ में यह बह गया तो मैं घर कैसे चलाउँगा ?”

बामा के चेहरे में रहस्यमई मुस्कान बिखर गई । जैसे उन्होंने कोई निर्णय ले लिया हो । उन्होंने अपनी माता के शव को उठाया और खुद नदी पर चलते हुए इस पार पहुंच गए । गांव वाले आंखें फाड़े उस दृश्य को देखते रह गए । बामा की इच्छा के अनुसार ही उन्होंने माई के मंदिर के पास वाले श्मशान में अपनी मां का दाह संस्कार संपन्न किया ।

मृत्यु भोज के लिए आसपास के सारे गांव में जितने लोग हैं, सभी को निमंत्रित करने के लिए बामाखेपा ने अपने घर के लोगों और आसपास के लोगों को कहा । सब इसे बामाखेपा का पागलपन समझकर शांत रहें । जिसके पास दो वक्त की रोटी का पता नहीं वह आसपास के 20 गांव को खाना कैसे खिलाएंगा यह उनके लिए कल्पना से भी परे की बात थी ।

जब कोई भी निमंत्रण देने जाने को तैयार नहीं हुआ तो बामाखेपा अकेले निकल पड़े । उन्होंने आसपास के 20 गांवों में हर किसी को मृत्यु भोज के लिए आमंत्रित कर लिया । सारे गांव वाले यह देखने के लिए तारापीठ पहुंचने लगे कि देखा जाए यह पगला किस प्रकार से इतने सारे लोगों को मृत्यु भोज कराता है ।

गांव वालों की आंखें उस समय फटी की फटी रह गई जब सुबह से बैल गाड़ियों में भर-भर कर अनाज सब्जी आदि तारापीठ की तरफ आने लगी । बैल गाड़ियों का पूरा एक काफिला मंदिर के पास पहुंच गया । अनाज और सब्जियों का ढेर लग गया । जो लोग आए थे उन्होंने खाना बनाना भी प्रारंभ कर दिया । दोपहर होते-होते सुस्वादु भोजन की गंध से पूरा इलाका महक रहा था ।

प्रकृति भी अपना परीक्षण कब छोड़ती है, आसमान में बादल छाने लगे। प्रकृति ने भी उग्र रूप धारण कर लिया। बिजली कड़कने लगी । हवाएं चलने लगी और जोरदार बारिश के आसार नजर आने लगे । बामाखेपा अपनी जगह से उठे और जिस जगह पर श्राद्ध भोज होना था, उस पूरे जगह को बांस के डंडे से एक घेरा बनाकर घेर दिया ।

घनघोर बारिश चालू हो गई लेकिन घेरे के अंदर एक बूंद पानी भी नहीं गिरी । गांव वाले देख सकते थे कि वे जहां बैठकर भोजन कर रहे हैं वह पूरा हिस्सा सूखा हुआ है, और उस घेरे के बाहर पानी की मोटी मोटी बूंदें बरस रही है । जमीन से जल धाराएं बह रही हैं । वह पूरा इलाका जिसमें भोज का आयोजन था ,पूरी तरह से सूखा हुआ था । 20 गांव से आए हुए सभी लोगों ने छक कर भोजन किया । हर कोई तृप्त हो गया ।

अब बारी थी वापस अपने अपने गांव जाने की । घनघोर बारिश को देखते हुए वापस जाने के लिए दिक्कत आएगी यह सोचकर सभी चिंतित थे ।

बामाखेपा ने माई के सामने अपना अनुरोध पेश किया और कुछ ही क्षणों में आसमान पूरी तरह से साफ हो गया और धूप खिल गई । सारे लोग बड़ी सहजता से अपने अपने गांव तक पहुंच गए ।

इस घटना के बाद बामाखेपा की अलौकिकता के बारे में लोगों को पता लगा । धीरे-धीरे लोगों की भीड़ बामाखेपा की तारा पीठ में बढ़ने लगी । कोई बीमार आता तो बामाखेपा उस पर हाथ फेर देते तो वह स्वस्थ हो जाता
है । निसंतानों को संतान की प्राप्ति हो जाती और सभी आगंतुकों की इच्छा और मनोकामना तारापीठ में पूरी होने लगी ।

बामाखेपा कभी भी बिना चखे माई को भोजन नहीं कराते थे । माई स्वयं अपने हाथ से उनको भोजन खिलाती थी और उनके हाथों से भोजन ग्रहण करती थी । ऐसे अद्भुत महामानव बामाखेपा अपने अंत समय में माई की प्रतिमा में लीन हो गए ।

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