पंद्रहवाँ अध्यायः पुरुषोत्तमयोग- श्रीमद् भगवदगीता

चौदहवें अध्याय में श्लोक 5 से 19 तक तीनों गुणों का स्वरूप, उनके कार्य उनका बंधनस्वरूप और बंधे हुए मनुष्य की उत्तम, मध्यम आदि गतियों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया। श्लोक 19 तथा 20 में उन गुणों से रहित होकर भगवद् भाव को पाने का उपाय और फल बताया। फिर अर्जुन के पूछने से 22वें श्लोक Continue reading

चौदहवाँ अध्यायः गुणत्रयविभागयोग- श्रीमद् भगवदगीता

तेरहवें अध्याय में ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ’ के लक्षण बताकर उन दोनों के ज्ञान को ही ज्ञान कहा और क्षेत्र का स्वरूप, स्वभाव विकार तथा उसके तत्त्वों की उत्पत्ति का क्रम आदि बताया। 19वें श्लोक से प्रकृति-पुरुष के प्रकरण का आरंभ करके तीनों गुणों की प्रकृति से होने वाले कहे तथा 21वीं श्लोक में यह बात Continue reading

तेरहवाँ अध्यायः क्षेत्रक्षत्रज्ञविभागयोग- श्रीमद् भगवदगीता

बारहवें अध्याय के प्रारम्भ में अर्जुन ने सगुण और निर्गुण के उपासकों की श्रेष्ठता के विषय में प्रश्न किया था। उसका उत्तर देते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने दूसरे श्लोक में संक्षिप्त में सगुण उपासकों की श्रेष्ठता बतायी और 3 से 5 श्लोक तक निर्गुण उपासना का स्वरूप उसका फल तथा उसकी क्लिष्टता बतायी है। उसके Continue reading

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